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चेतन की क्रिया सफल होने के कारण कर्म की सिद्धि
दान आदि क्रिया का कुछ फल होना ही चाहिए। क्योंकि वह चेतनायुक्त प्राणी के द्वारा की गई क्रिया है, जैसे कि खेती का कार्य । किसान खेती करता है तो उसका फल धान्य या फसल के रूप में मिलता है। वैसे ही दान का भी फल मिलना चाहिए। जो फल प्राप्त होता है वही कर्म है।
इस पर शंका की गई कि जैसे कृषिक्रिया दृष्ट फल वाली है, वैसे दानादि क्रिया का फल भी मनः प्रसन्नता आदि दृष्ट है तो फिर अदृष्ट फल की कल्पना क्यों? जैसे संसार में पशुओं का वध करते हैं वे लोग अशुभकर्म रूप अदृष्ट फल के लिए नहीं बल्कि मांस खाने के दृष्ट फल के प्रयोजन से ही करते हैं। अतः अदृष्ट फल मानना अनावश्यक है।
इसका समाधान दिया गया कि अशुभ क्रिया दृष्ट और अदृष्ट दोनों फल वाली हैं। यदि अदृष्ट फल नहीं होता तो संसारी जीव संसार में नहीं होते। और दानादि शुभ क्रिया का अदृष्ट फल नहीं होता तो कोई भी मुक्त नहीं होते। भले ही व्यक्ति अदृष्ट फल की कामना न करें किन्तु उसे फल प्राप्ति तो होगी ही । जैसे किसान धान्यबीज वपन करता है उस समय अनजाने में कोद्रव का बीज जमीन पर गिर जाने पर वह बीज जल - ताप आदि की अनुकूलता प्राप्त कर किसान के बिना इच्छा के भी उग जाता है, वैसे ही हिंसादि कार्य करने वाले या मांसाहारी व्यक्ति चाहे या न चाहे, अशुभकर्म अदृष्ट कर्म (फल के रूप में) उत्पन्न होता ही है। इसी प्रकार दानादि शुभ क्रियाएं करने वाले विवेकी पुरुष के न चाहने पर भी उन्हें शुभकर्मरूपी अदृष्ट फल मिलता ही है । 2
यद्यपि अनिष्टरूप अदृष्ट फल की प्राप्ति के लिए कोई भी जीव इच्छापूर्वक क्रिया नहीं करता हैं, फिर भी इस जगत में अनिष्ट फल भोक्ता जीव ज्यादा दिखाई देते हैं । तो इस तरह शुभाशुभ फल के द्वारा कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है।
किरियासामणत्तो, फलमस्सावि तं मंतं कम्मं ।
तरस परिणामरुवं, सुहदुक्खफलं जतो भुज्जो । विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1616
" "सर्वस्या अपि क्रियायां अदृष्टं फलं, विशेष्यावश्यक टीका, पृ. 694
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तस्मात् सर्वापि क्रियाऽदृष्टैकान्तिक फलेति प्रतिपद्यस्वेति” वही, टीका पृ. 694
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