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है तो अदृश्य कारण रूप कर्म को क्यों मानें?' इसका समाधान भगवान महावीर ने इस प्रकार किया कि - "दृष्ट कारण में विसंगतियां दिखाई पड़ती हैं, जैसे सुख-दुःख के समान पदार्थ उपस्थित होने पर भी फल कार्य में विभिन्नता या तरतमता दिखाई देती है, उसका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिये जैसे- रमणिरमण को सुख का कारण माना है किन्तु सुखोपभोग से अनेक असाध्य रोग उत्पन्न हो जाते है आद्य शंकराचार्य ने कहा है – “सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चादंत शरीरे रोगः।" और विष दुःख का दृष्ट हेतु है किन्तु कई बार रोगी व्यक्ति विष-प्रयोग से निरोगी हो जाते हैं। माला को सुख का दृष्टकारण माना जाता हैं, परन्तु उसी माला को कुत्ते के गले में डाल दी जाये तो वह उसे दुःख का कारण मानकर उससे छूटने का प्रयास करता है। अतः मानना होगा कि माला, विष आदि सुख-दुःख के बाह्य साधन हैं। उनके अतिरिक्त भी उनसे भिन्न अन्तरंग कारण कर्म है, जो सुख-दुःख की तरतमता का अदृष्ट कारण है। इस अनुमान से कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। कार्मण शरीर से कर्म का अस्तित्व
जिस प्रकार युवा शरीर बालशरीर पूर्वक होता है, उसकी प्रकार बालशरीर किसी अन्य शरीर पूर्वक होना चाहिए कार्मण शरीर - भ्रूण - शिशु - बालक - युवा – वृद्ध - मृत्यु होने पर पुनः कार्मण शरीर तो वह अन्य शरीर कार्मण शरीर है, कार्मण शरीर ही कर्म है। प्रश्न हो सकता है कि मरण के समय शरीर तो यहीं रह जाता है तो फिर कार्मण शरीर कैसे साथ में रह सकता है? इसके समाधान में भगवान महावीर ने बताया कि अन्तराल गति में जीव औदारिक अथवा स्थूल शरीर से सर्वथा रहित होता है, इससे बाल शरीर को पूर्वभवीय औदारिक शरीर का कार्य नहीं कहा जा सकता, अतः नियतदेश में प्राप्ति का कारणभूत तथा नूतनशरीर की रचना का कारणभूत किसी शरीर को स्वीकार करना ही होगा। इसलिए कर्मरूप कार्मण को ही बाल देह का कारण समझना चाहिए।'
'कर्मविज्ञान भाग 1, पृ. 160 २ "जो तुल्लंसाधणाणं फलेविसेसोणकिणा हेतुं", विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1613 3 "बालसरीरं देहतरपुव्वं, इंदियातिमत्तात्तो।
जय बालदेहपुव्बो, जुवदेहो पुव्वामिहं कम्म।, विशेष्यावश्यक भाष्य-गाथा 1614
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