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समझने सुनने, देखने, बोलने व सूंघने की हलन चलन करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। इन सब क्रियाकलापों में "कर्म" नाम की कोई वस्तु दिखाई नहीं देती तथा वेद वाक्यों में भी कहीं कर्म को माना गया हैं तो कहीं नहीं माना गया हैं जैसे- “पुरुषं वेदग्नि सर्वयद्भूतं यच्च भाव्यं, उत्तामृतत्वस्ये शानः । " यदन्ने नातिरोहति, यदेजति, यदनैजति, यद् दूरे यदं अन्ति के यदन्तरस्य सर्वस्य यत् सर्वस्यास्य बाह्यतिः ।" अर्थात् पुरुष आत्मा है। इसमें "ही" शब्द कर्म, ईश्वर, प्रकृति आदि सभी तत्वों का निषेधपरक है। इसका तात्पर्य यह है कि इस संसार में जो कुछ भी चेतन-अचेतन रूप दिखाई देता है, तथा संसार और मुक्ति, और जो अमृत अर्थात् अमरण भाव वाला हैं, वह भी तथा जो अन्न से बढ़ता है, जो चलता है और जो अचल है (पर्वत), जो दूर है (देश) और जो निकट है, जो चेतन-अचेतन पदार्थों के बीच में है अथवा जो इन सब पदार्थों से बाह्य है, वह सब मात्र पुरुष ही हैं। इन वाक्यों के अनुसार पुरुष से भिन्न कर्म का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता । तो दूसरी तरफ वेदों में और कर्म का साक्षात प्रतिपादन करने वाले "पुण्य पुण्येन कर्मणा, पापेन कर्मणा 2 जैसे वाक्य भी हैं।
एक स्थान पर बताया गया हैं कि स्वर्ग में जाने के इच्छुक को अग्निहोत्र करना चाहिए।' अर्थात् अग्निहोत्र का अनुष्ठान करने से आत्मा में एक अपूर्वकर्म उत्पन्न होता है, जिससे जीव स्वर्ग में जाता है।
इस तरह कर्म के अस्तित्व - नास्तित्व विषयक संदेह का समाधान न कर पाने के कारण द्वितीयगणधर अग्निभूति के मन में शंका उत्पन्न हुई थी कि कर्म का अस्तित्व है या नहीं। वे वेदों के ज्ञाता थे किन्तु एकान्तदृष्टि के कारण वेद-पदों के वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाये जिससे संदेहशील हो गये, भगवान महावीर ने कई युक्तियों प्रयुक्तियों से उन्हें कर्म के अस्तित्व को समझाया ।
समाधान
प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा कर्म के अस्तित्व की सिद्धि - कर्म के अस्तित्व पर संशय करने वालों का कथन है कि-कर्म प्रत्यक्ष आदि किसी भी ज्ञान का विषय नहीं होने से
ऋग्वेद 10/92 ईशावास्योपनिषद्, मंत्र 5
“अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" मैत्रायणी उपनिषद 3/6/36
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