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भूतवादी और पुरुषवादी क्रमशः विश्ववैचित्र्य के लिए कारण के रूप में पृथ्वी आदि पंचभूतों और परब्रह्म - ईश्वर की कल्पना करते हैं। इन वादों के होने पर भी विश्व- वैचित्र्य के कारण का कुछ निर्णय नहीं हो पा रहा था । सब में कारण को जानने की अपेक्षा अपने-अपने मत, सिद्धान्त की स्थापना के प्रति विशेष उत्सुकता थी और उत्साह था । लेकिन यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति करना, निशंक होना मानव का स्वाभाविक गुण हैं अतः विश्ववैचित्र्य के लिए विभिन्न कारणों की मीमांसा करते हुए कतिपय औपनिषदिक ऋषि कर्म - सिद्धान्त को मानने की ओर भी आकर्षित हुए । परिणामतः उपनिषदों में यत्र-तत्र संसार और कर्म - अदृष्ट के बारे में भी उल्लेख मिलते हैं ।
श्वेताश्वतर उपनिषद में उपरोक्त विचारधाराओं के उल्लेख यह बताते है कि उस काल में जगत् वैचित्र्य को लेकर विभिन्न प्रकार की अवधारणाएं प्रचलित थी । सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि- अग्निभूति के मन में भी यह विचार आया हो कि आखिर जगत् वैचित्र्य का किसे कारण माना जाये। यह भी सत्य है कि उस काल में कुछ दार्शनिक चिन्तन कर्म को ही जगत् वैचित्र्य को ही कारण मान रहे थे। गीता में कर्म सिद्धान्त का संकेत स्वयं श्रीकृष्ण ने दिया, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि- प्राणियों को उनके कर्म के अनुसार फल मिलता है 1
गीता यह भी मानती है कर्म और उसके फल की व्यवस्था चाहे ईश्वर द्वारा निर्धारित हो, किन्तु प्राणियों को जो भी उपलब्धियां होती है या नहीं होती है वे सब कर्म के कारण है। अंतः अग्निभूति के मन में स्वतः यह प्रश्न उत्पन्न हुआ होगा कि- काल, स्वभाव, यदृच्छा आदि को जगत् वैचित्र्य का कारण माना जाए या फिर कर्म को जगत् वैचित्र्य का कारण माना जाए।
इस शंका का समाधान गणधरवाद में 'कर्म' के रूप में दिया । आत्मा की यह विविधता - विरूपता स्वयं की नहीं है, स्वरूपगत नहीं है, बल्कि 'कर्म' नामक एक विजातीय पदार्थ की है, जो आत्मा की शुद्धता को नष्ट कर विरूपता तथा विभिन्नता उत्पन्न करता
है ।
इसी जिज्ञासा को लेकर अग्निभूति महावीर के समक्ष प्रस्तुत हुए होंगे।
विशेषावश्यक भाष्य इसी समस्या को अग्निभूति और महावीर के मध्य हुए संवाद के रूप में प्रस्तुत करता है।
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