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महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख है, स्वभाववाद के अनुसार सब कार्य स्वाभाविक रूप से होते रहते हैं उनके होने में अन्य कोई हेतु नहीं है ।
यदृच्छावाद
श्वेता श्वेवर उपनिषद् में इसका भी उल्लेख है इस वाद का मन्तव्य है कि किसी भी नियत कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति हो जाती हैं यदृच्छा शब्द का अर्थअकस्मात् या संयोग (Chance) है। न्यायसूत्र में अनिमित्त - निमित्त के बिना ही पदार्थ की उत्पत्ति हो जाना कहकर इस वाद का उल्लेख किया गया है।'
नियतिवाद
प्रकृति के अटल नियमों को नियति कहते हैं । नियतिवाद का कथन है किआत्मा और परलोक का अस्तित्व है, परन्तु संसार में दृष्टिगोचर होने वाले जीवों की विचित्रता का कोई भी अन्य कारण नहीं है, सब कुछ निश्चित प्रकार से नियत है और नियत रहेगा। जीव में यह शक्ति नहीं कि इस चक्र में किसी भी प्रकार का परिवर्तन कर सके। यह नियति चक्र स्वयं ही घूमता रहता है और जीवों को एक नियत क्रम के अनुसार इधर-उधर ले जाता है। जब यह चक्र पूर्ण हो जाता है तो जीव स्वतः ही मुक्त हो जाता है। नियति के अटल सिद्धान्त के सामने अन्य सब सिद्धान्त तुच्छ | कुछ विचारकों ने नियति का अर्थ होनहार भी किया है। जो होनहार है वह होकर ही रहता है । त्रिपिटक में पूरण काश्यप और मंखलि गौशालक के मतों का वर्णन आया है। एक के वाद का नाम है 'अक्रियावाद' तथा दूसरे के वाद का नाम नियतिवाद' रखा गया। परन्तु दोनों में सिद्धान्तः विशेष भेद नहीं है । 2
ईश्वरवाद
पुरुषवाद का दूसरा रूप ईश्वरवाद है, इसका तात्पर्य ईश्वरकर्तृत्ववाद । इस विश्व में व्याप्त समस्त विचित्रताओं - विविधताओं का कर्ता ईश्वर है, उसकी इच्छा के बिना जगत् का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। जो कुछ होता है वह सब उसी की इच्छा का परिणाम
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1 न्यायभाष्य, 3.2.31, उद्धृत - गणधरवाद - प्रस्तावना, पृ. 124
गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 125
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