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तो है ही, साथ ही आत्मा का भी गुण विस्तार है। देहपरिमाणत्व गुण इसकी सिद्धि करता है। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध डेकार्ट के दर्शन में ईश्वर की इच्छा से होता है, जबकि जैनदर्शन में आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का आधार ईश्वर की इच्छा नहीं अपितु हर व्यक्ति का अपने द्वारा किया गया कर्मबन्ध।
इस प्रकार अनेक समानताओं एवं असमानताओं से यह स्पष्ट होता है कि डेकार्ट का आत्मवाद जैन आत्मवाद की तुलना से काफी स्थूल है।
उपसंहार
जैन धर्म का मूल सिद्धान्त हैं-"अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा हैं। यह सिद्धान्त तभी माना जा सकता हैं। जब आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो। आत्मा का अस्तित्व हुए बिना साधना और आराधना का कोई महत्व नहीं है। आत्मा होने पर ही उसके विकास, कल्याण या हित के लिए साधना करना सार्थक हैं। भारतीय दर्शन में दो विचारधाराएं हैं- क्रियावादी अर्थात् आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले और अक्रियावादी आत्मा को नहीं मानते। ये किसी पदार्थ को प्रत्यक्ष देखकर अथवा तर्कशक्ति से परखकर ही स्वीकार करते हैं। जबकि आत्मा अरूपी हैं।
इस प्रकार दार्शनिक दल दो धाराओं में बंट गया- आस्तिक और नास्तिक । प्रस्तुत अध्याय में नास्तिक दर्शन के मत का निरसन करते हुए आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया हैं, जब अस्तित्व सिद्ध है तो उसका स्वरूप जानना भी आवश्यक हैं, अतः आत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाला हैं।
विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रागणि क्षमाश्रमण ने गणधर इन्द्रभूति के द्वारा शंका प्रस्तुत की हैं-आत्मा का अस्तित्व है या नहीं? क्योंकि तत्कालीन दार्शनिकों में भी दोनों प्रकार के विचार थे, जिससे वास्तविकता ज्ञात नहीं हो पा रही थी, तब सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने विविध समाधानों के द्वारा आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया। इस अध्याय में उन युक्ति-युक्त समाधानों को प्रस्तुत किया हैं। वे शंका समाधान संक्षिप्त में निम्न प्रकार से
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