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डेकार्ट ने आत्मा को अपरिणामी एवं अपरिवर्तनशील माना है, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। किन्तु जैनदर्शन में आत्मा अन्य द्रव्यों की तरह परिणामी एवं नित्य दोनों माना गया है, वह भी उत्पाद-व्यय एवं धौव्य स्वभाववाला
पंचास्तिकाय के अनुसार द्रव्य की अपेक्षा आत्म-द्रव्य नित्य एवं अपरिणामी तथा पर्याय की अपेक्षा से अनित्य तथा परिणामी है। विशेष्यावश्यक भाष्य में भी कहा गया है कि- आत्मा पूर्व-पर्याय के विगम (नाश) की अपेक्षा से व्यय स्वभाव वाली है, तथा अपर पर्याय की उत्पत्ति की अपेक्षा से उत्पाद स्वभाव वाली है, परन्तु विज्ञान की अपेक्षा से जीव नित्य है। बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से वृद्धावस्था प्राप्त करना तथा कर्मों के अनुसार मनुष्य गति, नरक गति, तिर्यंच गति और देव गति को प्राप्त करना आत्मा का परिणाम कहलाता है। यदि आत्मा को परिणामी न माना जाए तो बन्धन तथा मोक्ष असम्भव हो जायेंगे। डेकार्ट ने आत्मा के ज्ञेयत्व धर्म को स्वीकार किया है किन्तु ज्ञातारूप में स्वीकार नहीं किया। किन्तु जैनदर्शन में आत्मा ज्ञेय और ज्ञाता दोनों रूप है। आत्मा सर्वज्ञ रूप में सब कुछ जानने वाला है, इसलिए ज्ञातारूप है और आत्मा विभिन्न माध्यमों से जाना जाता है अतः ज्ञेय भी है। डेकार्ट ने आत्मा का निवास स्थान पीनियल ग्लैण्ड स्वीकार किया है, वहीं जैनदर्शन में आत्मा को शरीर परिमाण माना है। आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर मिलता है, उस पूरे शरीर में व्याप्त होकर रहता
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है।
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जैनदर्शन में आत्मा को अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं वीर्य से युक्त माना है, वही डेकार्ट के दर्शन में आत्मा मात्र बौद्धिक है, इस कारण डेकार्ट दर्शन की आत्मा काफी
स्थूल है। _जैनदर्शन में आत्मा की व्यापकता एकेन्द्रिय-बेन्द्रिय-तेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक है,
जबकि डेकार्ट ने मात्र मनुष्य में ही आत्मा को स्वीकार किया है। डेकार्ट ने आत्मा को पूर्णरूप से अप्रसारित माना है, उसने विस्तारगुण केवल अचिन्त द्रव्य में माना है। जबकि जैनदर्शन में पुद्गल का गुण संकुचन-विस्तार
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