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जीव और अजीव को ही मूलतत्व स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार डेकार्ट ने चित्त (आत्मा) और अचित्त (शरीर) को स्वीकार किया है, यहां चित्त का गुण चैतन्य और अचित्त का गुण विस्तार माना गया है। जैनदर्शन में भी जीव को चैतन्य स्वरूप और पुद्गल को विस्तार गुण से युक्त माना गया है। डेकार्ट ने आत्मा को अभौतिक माना है, अचित्त तत्व भौतिक है और आत्मा अभौतिक है। डेकार्ट ने इन दो विरोधी द्रव्यों में सम्बन्ध स्थापित किये हैं। जैनदर्शन में भी शुद्ध आत्मा को अभौतिक माना है और पुद्गल को भौतिक माना
3.
जैनदर्शन में आत्मा को कारण-कार्य की श्रृंखला से परे माना गया है, जिनकी उत्पत्ति होती है उनमें कारण-कार्य श्रृंखला पाई जाती है। आत्मा, नित्य, शाश्वत्, विभु है, वह उत्पत्ति और विनाश से परे है। डेकार्ट ने भी आत्मा को नित्य, शाश्वत् मानकर कारण-कार्य की श्रृंखला से मुक्त माना है। डेकार्ट ने संशय के द्वारा आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है, जैनदर्शन में भी संशय द्वारा आत्मा की सिद्धि का संकेत मिलता है। अकलंक ने तत्वार्थवार्तिक में कहा है कि 'आत्मा है' इस प्रकार का होने वाला ज्ञान यदि संशयरूप है तो आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है, क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। विशेष्यावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि ने संशय के द्वारा आत्मा की सत्ता सिद्ध की है। उनके अनुसार 'जीव है या नहीं यह संशय ज्ञान है और ज्ञान ही जीव है। डेकार्ट ने आत्मा को 'ज्ञेय' रूप में स्वीकार किया है। 'मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं'- डेकार्ट दर्शन का आत्मा सम्बन्धी मूल वाक्य सोचने के आधार पर आत्मा के ज्ञेयत्व को सिद्ध करता है। जैनदर्शन में भी आत्मा को ज्ञेयरूप माना गया है। जिस प्रकार काटने रूप क्रिया का कोई कर्ता होना चाहिए, और उसी प्रकार देखने, जानने रूप क्रिया का भी कोई कर्ता होना चाहिए, और जो इनका कर्ता है वही आत्मा है।
असमानता
इन समानताओं के होते हुए भी दोनों के आत्मतत्व में कुछ असमानताएं हैं, वे इस प्रकार हैं
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