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जैन आगमों में भी इस बात का समर्थन मिलता है स्थानांग सूत्र में जीव को दो प्रकार से वर्गीकृत किया है सरूवी चेव अरूवी य" सरूवी अर्थात् कर्मानुसार रूप विशेष एवं आकृति विशेष को धारण करने वाले जीव सरूपी कहलाते है तथा जो मुक्तात्मा कर्म-रहित होने से अमूर्त है, अतः वे अरूपी है ।'
उत्तराध्ययन सूत्र में भृगुपुरोहित और उसके पुत्रों के संवाद में जब पिता कहते है आत्मा तो दिखाई नहीं देती है तो फिर उसका अस्तित्व कहां हैं? तब पुत्रों ने कहा - पिताजी, आत्मा अमूर्त है, इसलिए यह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। 2
कि
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जीव निश्चय से अमूर्त - अखण्ड - एक प्रतिभासमय होने से अमूर्त है, स्वरूप से अमूर्त है । और पररूप में प्रवेश द्वारा मूर्त भी है ।
आत्मा भूतों से भिन्न
आत्मा एक मौलिक तत्व है, अथवा अन्य किसी से उत्पन्न हुआ हैं, यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। सभी दर्शन यह मानते है कि, संसार आत्म और अनात्म का संयोग है, मूल तत्व क्या है, यही विवाद है, इस बात को लेकर कई धारणाएं हैं- जिसका वर्णन अगले अध्याय में करेंगे ।
उर्ध्वगमनत्व
निश्चय नय से जीव का स्वभाव उर्ध्वगमनशील है, क्योंकि उसमें गुरुत्व नहीं होता । जीव की स्वाभाविक उर्ध्वगति होने के कारण वह समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त होते • सिद्धशिला
ही उर्ध्वगमन करके एक समय में लोक के अग्रभाग
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पर पहुंच जाता है ।
मुक्त जीव उर्ध्वगति में ही गमन क्यों करता है? इस प्रश्न के समाधान में शास्त्रकारों ने चार कारण प्रस्तुत किये हैं
1.
पूर्व प्रयोग से - जिस प्रकार कुम्हार का चाक दण्ड को हटाने के बाद भी कुछ देर तक स्वयं ही घूमता रहता है उसी प्रकार मुक्त जीव भी पूर्वबद्ध कर्मों के छूट जाने के बाद भी उसके आवेश से प्राप्त आवेग द्वारा उर्ध्व गति करता है।
स्थानांगसूत्र, अध्य. 2
उत्तरज्झयणाणि 14/19 ("नो इन्दियगेज्झ अमुत्तभावा")
3 पंचास्तिकाय संग्रह, गाया 97
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