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1. जीव यदि पौद्गलिक नहीं हैं तो उसमें सौक्षम्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार
क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द कैसे बन सकता है? क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार सौक्ष्म्य को पुदगल का पर्याय माना गया है। जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का प्रति-बिम्बित होना भी कैसे हो सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है। जैन दर्शन में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा में प्रतिबिम्बित होने से ही मानी गयी है। अपौद्गलिक और अमूर्तिक जीवात्मा का पौद्गलिक एवं मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे सम्भव है? रागादिक को पौद्गलिक माना है जबकि रागादिक जीव के परिणाम है, बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं है (यदि जीव पौद्गलिक नहीं हो तो रागादिक पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे? इसके सिवाय अपौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण-नीलादि लेश्याएं कैसे बन सकती है।'
उपर्युक्त शंकाओं का समाधान जैन विद्वानों ने इस प्रकार दिया है - संकोच-विस्तार तथा उसके आधार पर होने वाले सौक्ष्म्य एवं स्थौल्य तथा बन्धन और रागादि-भाव का होना सभी बद्ध जीवात्माओं या हमारे वर्तमान सीमित व्यक्तित्व के कारण है। जहां तक सीमित व्यक्तित्व या बद्ध जीवात्मा का प्रश्न है, वह एकान्त रूप से न तो भौतिक है और न अभौतिक।
आचार्य महाप्रज्ञ इस प्रश्न का समाधान करते हुए लिखते हैं - हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक है और न सर्वथा अपौद्गलिक। यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक माने तो उसमें चैतन्य घटित नहीं हो सकता और सर्वथा अपौद्गलिक माने तो संकोच-विस्तार, प्रकाशमय अनुभव, उर्ध्वगौरवधर्मिता, रागादि नहीं हो सकते। शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं हैं। अपौद्गलिकता उसकी अन्तिम परिणति है जो शरीर-मुक्ति से पहले कभी प्राप्त नहीं होती। इस तरह अनेकान्त दृष्टि रखने पर शंका का समाधान हो जाता है। मूल रूप से आत्मा अरूपी हो है।
' अनेकान्त पत्रिका, जुगलकिशोर मुखत्यार, 1942 जून 'मुनि नयमल, तट दो प्रवाह एक, पृ. 54
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