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विशेषावश्यकभाष्य में भी जीव को सर्वव्यापी न मानकर शरीरव्यापी माना है, जैसे घड़े के गुण घड़े में ही उपलब्ध होते हैं, बाह्य देश में नहीं वैसे ही आत्मा के गुण शरीर से बाहर उपलब्ध नहीं होते ।
आत्मा का परिणामीत्व
प्रति समय अपर अपर पर्यायों में परिणमन होने वाले पदार्थ को परिणामी कहते है । एक दशा, एक रूप एक आकार को छोड़कर दूसरी दशा अवस्था, रूप और आकार में परिवर्तित होने वाले को परिणामी कहते हैं। आत्मा का द्रव्य और भाव पर्याय में प्रतिक्षण परिणमन होता ही रहता है
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भारतीय दर्शनों में कुछ दर्शन आत्मा को परिणामी मानते हैं तो कुछ दर्शन कूटस्थनित्य । जैसे- बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा अन्य वस्तुओं की तरह परिवर्तनशील है । बुद्ध ने आत्मा को विज्ञान का प्रवाह माना है। आत्मा पांच स्कन्धों की समष्टि का नाम है, स्कन्धों के परिवर्तनशील होने के कारण आत्मा भी परिवर्तनशील है। न्यायदर्शन के अनुसार आत्मा नित्य तत्व है, सांख्य दर्शन के मत से आत्मा कूटस्थनित्य हैं, किन्तु जैन दर्शन की मान्यता है कि आत्मा परिणामी नित्य है। उसमें प्रतिक्षण अभिनव पर्यायें पैदा होती हैं और पुरातन पर्यायों का क्षय होता हैं। इसका विस्तार से विवेचन अगले अध्याय में करेंगे।
आत्मा अरूपी (अमूर्त) है
स्थूल शरीर तो आंखों से दिखाई देता है, परन्तु सूक्ष्म शरीर, मन, बुद्धि, परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ आंखों से नहीं दिखाई देते है फिर भी चतुःस्पर्शी पुद्गल हैं, उनमें वर्ण- गन्ध-रस और स्पर्श होता है। जिसमें वर्णादि हो, वे सभी जड़ भौतिक पुद्गल है । ये भौतिक पुद्गल - जड़ प्रकृति के धर्म है । निश्चय दृष्टि से आत्मा अरूपी हैं, उसमें कोई वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्श नहीं होता ।
जैन विचारधारा के अनुसार आत्मा या जीव को अपौद्गलिक, विशुद्ध, चैतन्य तथा पुद्गल से भिन्न स्वतन्त्र तत्व या द्रव्य माना जाता है। लेकिन कुछ दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन दर्शन के अनुसार तो जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। उसके लिए उन-उन दार्शनिकों द्वारा दिये गए तर्क निम्नानुसार है
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