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"अप्पा जोइय सव्वगउ, अप्पा जडुवि वियाणि। अप्पा देह पमाणु मुणि, अप्पा सुण्णु वियाणि ।''
कतिपय दर्शन (नैयायिक वेदान्ति और मीमांसक दर्शन वाले) जीव को सर्वव्यापक रूप में स्वीकार करते है, कोई (सांख्य-दर्शन वाले) जीव को जड़ कहते हैं, कोई (बौद्ध दर्शन वाले) जीव को शून्य के रूप में रूपायित करते है, कोई (जिनधर्मी) जीव को व्यवहारनयसे से देह प्रमाण और निश्चयनय से लोक प्रमाण स्पष्टतः प्रमाणित करते है। पर यथार्थ अर्थ में आत्मा कैसा है? यह एक ऐसा प्रश्न है जो हमारे मन-मस्तिष्क को प्रभावित किये है।
इन प्रश्नों का उत्तर योगीन्दुदेव ने अनेकान्तदृष्टि से दिया हैं किसी अपेक्षा से आत्मा सर्वगत है - जब आत्मा कर्मों से रहित होता है तब केवलज्ञान प्रकट होता है, जिससे वह लोका-लोक को जानता है, अतः ज्ञान की अपेक्षा से सर्वगत है, आत्म प्रदेशों की अपेक्षा से नहीं।
___ आत्मा जड़ है - महामुनियों को वीतरागनिर्विकल्प समाधि के समय में स्वसंवेदन ज्ञान होने पर भी इन्द्रियजनित ज्ञान नहीं होता है और केवलज्ञानियों को तो केवल अतीन्द्रिय ज्ञान ही होता है। अतः इन्द्रिय ज्ञान के अभाव की अपेक्षा से आत्मा को जड़ भी कहा जा सकता है।
आत्मा शरीर प्रमाण है - संसारी अवस्था में हानि-वृद्धि का कारण शरीरनाम कर्म है। इसके सम्बन्ध से जीव बढ़ता है, और घटता है। जब महामच्छ का शरीर पाता है तो शरीर की वृद्धि होती है और जब निगोदिया शरीर पाता है तब घट जाता है। और मुक्त अवस्था में हानि-वृद्धि के कारण भूत कर्म का अभाव होने से जीव के प्रदेश न तो सिकुड़ते हैं, न फैलते है, किन्तु चरम-शरीर से कुछ कम पुरुषाकार ही रहते हैं। इसलिए यह शरीर प्रमाण है। इस अपेक्षा से शरीर प्रमाण मानते है।
'परमात्मप्रकाश, गाथा 51 परमात्मप्रकाश, गाथा 52
वही, गाथा 53 + वही, गाथा 54
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