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________________ भगवान ने कहा-हां! हाथी और कुन्थु का जीव एक सदृश्य है।' इस प्रश्नोत्तर से यह पूर्ण ज्ञात है कि - जिसका जितना शरीर है, उसकी आत्मा उतने ही शरीर में समा जाती हैं। अर्थात् देह के अनुसार आत्म-प्रदेशों का संकोच और विस्तार भी होता है। राजा प्रदेशी ने राजप्रश्नीय सूत्र में इसी प्रश्न को केशीश्रमण से पृच्छा कि-क्या हाथी और कुन्थु का जीव एक जैसा है? तब केशीश्रमण ने समाधान की भाषा में कहा-हां! जैसे - एक दीपक को विस्तृत भवन में जब स्थापित कर दिया जाता है तब सर्व द्वार और सर्व गवाक्ष बन्द कर दिये जाये तब उस दीपक के प्रकाश से वह विस्तृत भवन प्रकाशित हो सकता है, और वही दीपक जब लघु कक्ष में रख दिया जाता है तब उसका प्रकाश उस कक्ष तक ही सीमित रहेगा, उसी प्रकार पूर्वोपार्जित कार्मिक पुद्गलों से जीव को लघु अथवा बृहद् देह की प्राप्ति होती है, उसी के अनुसार आत्मप्रदेशों का संकोच अथवा विस्तार करने का स्वभाव होता है। निष्कर्ष यह है कि वह उस शरीर को अपने असंख्यात आत्म प्रदेशों द्वारा संकुचित अथवा परिव्याप्त करता है। अतःएव स्पष्ट यह है कि आत्मा सर्वव्यापी भी नहीं है और अणुमात्र भी नहीं है। आचार्य कार्तिकेय देह प्रमाणत्व को स्वीकार करते हैं उनका स्पष्टतः मन्तव्य है कि-"लोकाकाश में असंख्यात प्रदेश है, और जीव के भी असंख्यात प्रदेश है। केवलज्ञानी जब केवली समुद्धात करते है उस समय प्रदेश लोक में व्याप्त होते हैं। जीव में संकोच विस्तार की क्षमता है अतः जैसा शरीर प्राप्त है उसी के प्रमाण जीव का संकोच और विस्तार स्वतः हो जाता हैं। यह कथन जीव को सर्व गत मानने वाले मतों का अक्षारंशः निरसन करने के लिए पर्याप्त है - जब जीव सर्वगत है तब सर्व क्षेत्र सम्बन्धी सुख-दुःख की अनुभूति होनी चाहिए, परन्तु ऐसा कदापि सम्भव नहीं है, अतः जीव को स्व शरीर प्रमाण मानना ही तर्करूपी अर्क के प्रकाश में स्पष्ट है।' उपर्युक्त मान्यताओं के सद्भाव में जिज्ञासुओं के मन में एक प्रश्न उठता है किआत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या हैं? ' व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, 7/8/2, पृ. 175 २ राजप्रश्नीय सूत्र, 265 सूत्र, पृ. 173 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 182-183, पृ. 83 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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