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अपितु देशव्यापक है, अर्थात् अपने शरीर परिमाण में स्थित है। यह जो कथन है वह व्यवहारनय की विवक्षा के आधार पर है।
जैन दर्शन में आत्मा को व्यापक रूप भी स्वीकार किया है, परन्तु वह केवलज्ञान के सर्वत्र उपयोग की अपेक्षा से है । जब केवलज्ञानी के आयुष्य के अन्तिम भाग में वेदनीय कर्म सर्वाधिक और आयुष्यकर्म अल्प रह जाता है, तब वे उस समय उन दोनों कर्मों में सन्तुलन लाने की दृष्टि समुद्धात करते है । उस समय सर्वप्रथम स्वकीय आत्म प्रदेशों को दण्डाकार के रूप में फैलाते हैं, द्वितीय समय में उन्हें कपाट के आकार में परिवर्तित करते है। तृतीय समय में मथनी के रूप में अपनी आत्मा प्रदेशों को फैलाते हैं, और चतुर्थ समय में अपने आत्म प्रदेशों को सम्पूर्ण लोक में विस्तीर्ण कर लेते है। इस प्रकार उनके आत्मप्रदेश लोक के समस्त आकाश प्रदेशों को संस्पर्श कर लेते हैं पंचम समय में वे पुनः अपने आत्म-प्रदेशों को समेटने लगते है और उन्हें मंथनी की स्थिति में ले आते है, षष्ठ समय में पुनः कपाट और सप्तम् समय में दण्ड के आकार में ले आते हैं, एवं अष्टम् समय में अपने शरीर में आत्म प्रदेशों को सुस्थिर कर देते हैं । अर्थात् आत्मप्रदेशों को फैलाकर समेट लेते हैं । एतदर्थ आत्मा केवली समुद्धात की अपेक्षा से सर्वव्यापी है।' सदा के लिए नहीं। इसलिए आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मानना ही सर्वथा संगत है । आगम साहित्य में सूत्रकृतांग साहित्य अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
प्रस्तुत आगम में आत्मा की सर्वव्यापकता के मन्तव्य का निरसन करते हुए बताया गया है कि- अकारकवादी ने आत्मा को सर्वव्यापी तथा "सर्वगत" के रूप में स्वीकार किया है। तब प्रश्न चिह्न है कि आत्मा यदि व्यापक है तो उसकी नरक - तिर्यंच, मनुष्य और देव तथा मोक्षरूप पांच प्रकार की गति भी नहीं हो सकती, ऐसी स्थिति में अकारकवादियों द्वारा काषायवस्त्रधारण, शिरोमुण्डन, दण्डधारण, भिक्षान्नभोजन, यम-नियम आदि सर्व क्रियाकलाप व्यर्थपूर्ण हो जायेंगे | 2
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गणधर इन्द्रभूति गौतम ने महाप्रभु महावीर से पृष्छा की "से णूणं भंते! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे? क्या वास्तव में हाथी और कुन्थु का जीव समान है? तो
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औपपातिक सूत्र, सिद्धस्वरूप, पृ. 40
सूत्रकृतांगसूत्र, गाथा विवेचन-13-14, हेमचन्द्रजी मा., आत्मज्ञानपीठ मानसा, पृ. 107
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