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मस्तिष्क एवं चरण में अथवा शरीर के किसी भी दो या दो से अधिक अंगों में पीड़ा जब हो जाती है उसका एक समय में एक साथ अनुभव नहीं हो सकेगा। अतःएव आत्मा अणु प्रमाण के रूप में स्वीकृत नहीं है।
यदि आत्मा को सर्वव्यापक माना जाता है तो उसमें निष्क्रियता आ जायेगी। यदि जगत के समस्त प्राणियों में एक ही आत्मा है, तब उसमें गतिशीलता नहीं रहेगी। क्योंकि एक जीव के गति करते ही सब में गति होने की सम्भावना परिलक्षित होगी, और एक के स्थिर होने पर सर्व आत्माएं स्थिर होने लगेगी जो कयमपि युक्तियुक्त नहीं है।
अतःएव यह कथन यथार्थपूर्ण है आत्मा न तो अणुरूप है और न सर्वव्यापक रूप है, वह मध्यमपरिमाण वाला है। चार्वाक और बौद्ध दर्शन भी आत्मा को देह परिमाण के रूप में मानते है। कौशीतकी उपनिषद में भी ऐसा समुल्लेख है कि - जैसे तलवार अपनी म्यान में एवं अग्नि अपने कुण्ड में व्याप्त है, उसी तरह आत्मा देह में नख से लेकर शिखा तक परिव्याप्त है।
___इसी सन्दर्भ में जैन आगम में गम्भीर रूपेण विशेष चर्चा है- "आगओ अहमंसि"2 अर्थात् – मैं आया हूं - “पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहंमसि।" इस सूत्र से आत्मा की सर्वव्यापकता का न केवल निषेध होता है अपितु प्रतिरोध भी होता है। जैन-दर्शन आत्मा को संसारी आत्मा की अपेक्षा से शरीर परिमाण मानता है। पर कतिपय दर्शनकार आत्मा को सर्वव्यापक रूप में मानते हैं, एतदर्थ सूत्रकार ने स्पष्ट उद्घोषित किया है - “मैं आया हूँ।" यदि ऐसा प्रस्तुत तथ्य को इस रूप में स्वीकार कर लिया जाये कि “संसार में एक ही आत्मा है और सर्वव्यापक है तब मैं किस दिशा से आया हूं तथा किस दिशा या गति में जाऊंगा? ऐसा प्रयोग कदापि नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब आत्मा सर्वव्यापक है तब वह नारक, देव तिर्यंच और मनुष्य इन गतियों में स्थित है, तब एक गति का आयुष्य पूर्ण करके अपर गति में जाने की चर्चा एवं जन्म-मृत्यु की चर्चा यौक्तिकरूप प्रतीत नहीं होती। जब वह सर्वत्र व्याप्त है तब वह जन्म या मृत्यु के बिना यत्र-तत्र सर्वत्र जहां भी जाना है वहां पहुंच ही जायेगा। उसे न गति करने की आवश्यकता है और न ही इससे यह प्रमाणित होता है कि आत्मा सर्वव्यापक नहीं है,
'कौषीतकी उपनिषद, 4/120
आचारांगसूत्र, 1/1/3, पृ. 20, "आगओ अहमंसि" 'आचारांगसूत्र 1/4 "के वा इओ चुए, इह पेच्चा भविस्सामि"
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