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विषय में इस रूप में उल्लेख किया है कि “जीव कर्मफल को भोगता है, संसार में सुख-दुःख रूप अनेक प्रकार के कर्मों के विपाक को भोगता है। इसलिए भोक्ता हैं।
जीव को कर्तृत्व और भोक्तृत्व की दृष्टि से कर्मकार की उपमा से उपमित किया है। जैसे कर्मकार कार्य करता है और उसका फल भोगता है, वैसे ही जीव स्वयं कर्म करता है और उसका फल भोगता है। आत्मा का स्वदेह परिमाणत्व
आत्मा अणु है अथवा सर्वव्यापक है अथवा मध्यमपरिणामयुक्त है? इस विषय में भी विभिन्न विचारधाराएं परिलक्षित होती हैं। वैदिक दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य तथा सर्वव्यापक मानता हैं। उपनिषदों में परिमाण के विषय में बहुविध विचारधाराएं हैं, किन्तु ऋषियों की प्रवृत्ति समग्र कल्पना के अन्त में आत्मा को व्यापक मानने की विशेष रूप से हुई। जैसे- आत्मा नित्य और निरवयव है तथा व्यापक भी है। व्यापक का तात्पर्यभूत आशय का अर्थ महतोमहियान परिमाण द्रव्य होना है। कोई भी द्रव्य यदि नित्य है तब वह अणुपरिमाण वाला हो सकता है या परममहतपरिमाण वाला। इन उभय विकल्प के बीच मध्य आत्मा को अणु-परिमाण के द्रव्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा समस्त शरीर के अंग-प्रत्यंग के माध्यम से समुत्पन्न सुख आदि का अनुभव नहीं कर सकेगा। इसलिए इसे परममहत्परिमाण द्रव्य माना गया है। यही कारण है कि सभी वैदिक दर्शन में आत्मा को व्यापक रूप माना हैं। इस विषय में शंकराचार्य के अतिरिक्त रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र, के भाष्यकार अपवाद मात्र हैं, उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक तथा जीवात्मा को अणुपरिमाण के रूप में स्वीकार किया हैं, परन्तु जैन दर्शन सापेक्ष दृष्टि से आत्मा को सर्वव्यापक और अणु न मानकर उसे मध्यम परिमाण के रूप में स्वीकार करता
है।
जब आत्मा को अणु माना जाता तब वह न किसी पदार्थ का ज्ञान ही कर सकेगा और न सुख-दुःख की अनुभूति ही कर सकेगा, क्योंकि यदि वह अणुरूप है तब शरीर के एक प्रदेश में रहेगा न कि सम्पूर्ण शरीर में रह पायेगा। हमारी समस्त इन्द्रियां पदार्थों को जानने में समर्थ नहीं रहेगी, क्योंकि उनमें आत्मा का सदभाव नहीं है। इसी प्रकार
' वही, गाथा 189 (जीवो वि हवइ भूत्ता, कम्मफलं सोवि भुंजदे जम्हां)
तर्क संग्रह, पृ. 13
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