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कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं प्राप्त होता है।' निम्न गाथा से आत्मा का कर्तृत्व व भोक्तृत्व स्वयमेव सिद्ध होता है। “अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण सुहाण य आत्मा ही कर्मों का कर्ता है और आत्मा ही भोक्ता है।
कुन्दुकुन्दाचार्य ने आत्मा के स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने समयसार में कर्तृकर्माधिकार में उन्होंने कर्ता और भोक्ता की अपनी दृष्टि से चर्चा की है, उन्होंने व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को परस्पर में संपूरक मानकर आत्मा को कर्ता और भोक्ता स्वीकार किया।"
जब तक यह जीव आस्रव और आत्मा के भेद को नहीं जानता तब तक निःशंक होकर क्रोधादि कषाय में प्रवृत्ति करता है। क्रोध करते समय आत्मा अज्ञानभाव के कारण स्वभावजन्य उदासीन-ज्ञातत्व और दृष्टित्व अवस्था का परित्याग कर हिंसादि कार्यों को करता हुआ प्रतिभासित जैसा लगता है, इसलिए आत्मा कर्मों का कर्ता है।'
आत्मा अपने भावों को शुभ-अशुभ रूप में परिणमन करता है वह उस भाव का कर्ता निश्चय से होता है, वही भाव उसका कर्म होता है, उस भावरूप कर्म का भोक्ता आत्मा ही है।
___ पंचास्तिकाय में प्रस्तुत तथ्य को इस प्रकार स्पष्ट किया है- "एवं कत्ता भोत्ता होज्जं, अप्प सगेहि कम्मेहि। हिंण्डदि पारमपारं, संसार मोहसंछण्णो। वह अपने कर्मों से कर्ता भोक्ता होता है अतः आत्मा मोहाच्छादित हुआ सान्त अथवा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है।" जब संसारी जीव मोहरूप राग अथवा द्वेष भाव करता है, तब उसी क्षेत्र में स्थित कार्मण-वर्गणा रूप पद्गल स्कन्ध जीव के प्रदेशों में विशेष प्रकार से परस्पर अवगाह रूप से प्रविष्ट होकर कर्म अवस्था को प्राप्त होते हैं।
स्वामी कार्तिकेय ने जीव की कर्तृत्व शक्ति को इस रूप में प्रतिपादित किया"यह जीव सर्व कर्म नोकर्मों को मानता है, और अपने कर्म करता है। तदनन्तर भोक्ता के
'उत्तराध्ययन सूत्र 4/3 कड़ाण कम्माण न मोक्ख अत्थि"
वही, 20/37 "अप्पा कत्ता-विकत्ता य दुहाण सुहाण य" समयसार, कर्तृकर्माधिकार, गाथा 69-70 *वही, गाथा 102
पंचास्तिकाय, गाथा 69 (एवं कन्ता-भोक्ता) ' कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 188, ("जीवा हवेइ कत्ता सव्वं कम्माणि कुव्वदे जम्हा)
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