SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूप में स्थित है। अतः एव आत्मा को धर्म-अधर्म एवं सुख-दुःख के भोग की व्यवस्था के लिए सक्रिय मानना ही युक्ति युक्त है। अकारकवादी का अभिमत है कि “आत्मा स्वयं कोई, क्रिया नहीं करता है और न दूसरों से करवाता है", सूत्रकृतांग सूत्र में यह तथ्य स्पष्ट है कि “कुलं च कारवं चेव सत्वं कुव्वं ण विज्जति। वृत्तिकार ने इसका निरसन इस रूप में किया है - "आत्मा को अकर्ता मानने पर प्रत्यक्ष दृश्यमान् जन्म-मृत्यु आदि रूप, नरक तिर्यंचादि प्रभृति गति गमन रूप यह लोक कैसे सिद्ध होगा? आत्मा के कर्तृत्व के विषय में उल्लेख है कि "सयमेव कडेहिं गाहति णो तस्सा मुंच्चे अपुटठ्वं । गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा की ‘जीवे णं भन्ते! सयंकडं दुक्खं वेदेति?' क्या जीव स्वयंकृत कर्मों को भोगता है?' इस प्रश्न की पृष्ठ-भूमि में उस युग की आत्मविषयक अनेक विभ्रान्त मान्यताएं थीं1. कर्म का कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है। 2. ईश्वर या किसी शक्ति की कृपा होने पर स्वकृत दुःखजनक अशुभ कर्म का फल भोगना नहीं पड़ता है। परमाधार्मिक नरकपाल आदि 'परकीय निमित्त से नारकीय जीवों को दुःख मिलता है। वस्त्र-भोजनादि परवस्तुओं से अथवा अन्य व्यक्तियों से मनुष्य को सुख-दुःख प्राप्त होता है। किन्तु ये कतिपय मान्यताएं तर्क की कसौटी पर पूर्णतः खरी नहीं उतरती - पर वस्तु अथवा पर व्यक्ति सुख या दुःख में मात्र निमित्त बन सकते हैं, किन्तु वे कर्मकर्ता के स्थान पर स्वयं में सुख अथवा दुःख नहीं भोग सकते और न ही सुख दुःख दे सकते है, अतः जीव स्वयं ही कर्म का कर्ता और स्वयं कर्म फल का भोक्ता है। जैसे- सेंध लगाते हुए पकड़ा गया चोर अपने कर्म से ही छेदा जाता है - दण्डित होता है, उसी प्रकार कृत ' सूत्रकृतांग सूत्र, अध्ययन 1, उद्दे, 1 गाथा 13 - वही, अध्ययन 2/1/4 'व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र शतक 1, उद्दे, 2, सूत्र 2, पृ. 243 • वही, भाग 1, पृ. 243 111 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy