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________________ मुक्त नहीं हो सकेगा । इन सांख्य विचारकों ने इन दोषों से बचने के लिए आत्मा को अकर्तृत्व रूप में स्वीकार किया है। इसी सन्दर्भ में यह तथ्य स्पष्ट हैं कि समग्र दर्शनकारों ने आत्मा के कर्तृत्व व भोक्तृत्व को अंशतः स्वीकार किया है, परन्तु जैन दर्शन सापेक्ष दृष्टि में आत्मा को पूर्णतः कर्ता मानता है। उसके कर्तृत्व के मध्य में कोई भी शक्ति न तो बाधक रूप है और न सहायक रूप ही । सांसारिक जीवात्मा सदा योगों में सक्रिय है, अतः आत्मा की सदसद् प्रवृत्ति के अनुसार शुभ और अशुभ कर्मों का आत्मा के साथ अनुबन्ध होता है और जब आत्मा अपने शुभ एवं शुद्ध अध्यवसायों के द्वारा मन - वचन और काय योग को अशुभ प्रवृत्ति से विमुख कर लेता है, तब वह क्रमशः अशुभ कार्मिक बन्धनों से विरत हो कर बध्द कर्मों की निर्जरा करने में तत्पर हो जाता है, और इस प्रकार एक दिन वह सर्व कर्म बन्ध के प्रगाढ़ जाल से सर्वथा मुक्त होकर सिद्धत्व अवस्था को अधिगत कर लेता है, यही आत्मा का कर्तृत्व है । और जब आत्मा स्वयं कर्म करता है तब उसका फल भी स्वयं प्राप्त होगा, यह तथ्य आगम प्रमाण से सर्वांशतः प्रमाणित है । यथा "जाणितु दुःखं पते सायं "" अर्थात् प्रत्येक प्राणी अपने कृत शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का संवेदन करता है। आत्मा स्वयं ही कर्मों का कर्ता और भोक्ता भी है। अनुभव करने वाला और उन अनुभवों को स्मृति में संजोए रखने वाला भिन्न-भिन्न तत्व नहीं है अपितु एकमात्र जीव तत्व ही है I जैन दर्शन में "एगा किरिया " " सूत्र से आत्मा को सक्रिय मानकर सांख्यदर्शन की मान्यता का निराकरण किया है। आत्मा दण्ड के अनन्तर क्रिया में प्रवृत्ति करता है। सांख्य दर्शन के अनुसार जब आत्मा को निष्क्रिय मान लिया जाता है तब आत्मा कर्मों के निगुढ़ बन्धनों में बन्ध ही नहीं सकता और ऐसी दशा में बन्ध और मोक्ष की समग्रतः व्यवस्थाएं छिन्न-भिन्न हो जायेगी। यदि यह तथ्य जब स्वीकार कर लिया जाता है कि भोक्तृत्व क्षमता आत्मा में नहीं है, प्रत्युत प्रकृति-विकार रूप बुद्धि को ही सुखादि की अनुभूति होती है, तब यह मान्यता भी औचित्यपूर्ण नहीं है । इस दृष्टि से प्रकृति में ही कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों का समावेश हो जाता । आत्मा तटस्थ रहने के कारण भोक्तृत्व से शून्य 1 आचारांगसूत्र, 2/1/69 “जाणितुं दुःख पत्तेयं सायं" 2 स्थानांग सूत्र, 1/1/4 Jain Education International 110 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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