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हैं। क्योंकि यह उपयोग ही सम्पूर्ण जीवों का एकमात्र निर्दोष लक्षण है। उपयोग चेतना का ही परिणमन है।' विशेष्यावश्यकभाष्य में भी जीव को ज्ञान-दर्शन सहित माना है ।
इस प्रकार उपयोग या चैतन्य गुण जीव को अजीव से पृथक्रूपेण सिद्ध करता है । न्यायवैशैषिक दर्शन आत्मा को चैतन्यस्वरूप न मानकर जड़ स्वरूप मानते हैं, उनका मन्तव्य है कि आत्मा और ज्ञान में समवाय सम्बन्ध है । " ज्ञानाधिकरणमात्मा" आत्मा अधिकरण है और ज्ञान आधेय है। आत्मा स्वयं जड़ है परन्तु ज्ञान के योग से ज्ञानवान है एवं चेतना के योग से चेतनावान है।
इस विषय में जैनदर्शन का अमर उद्घोष है कि ऐसा किसी को अनुभव नहीं होता कि मैं स्वयं अचेतन हूं, किन्तु चेतन के योग से चेतनावान हूं, ऐसी प्रतीति भी सम्भव नहीं हो पाती। मैं ज्ञाता हूं, मैं दृष्टा हूं, ऐसी प्रतीति होती है। अतः ज्ञान और आत्मा भिन्न नहीं है । सुषुप्तिकाल में भी चेतनत्व सर्वथा लुप्त नहीं होता, अव्यक्तरूप में सका अस्तित्व सुरक्षित है।
कर्ता एवं भोक्ता
आत्मा में कर्तृत्व शक्ति सन्निहित है, जब वह अपने हित-अहित को जानने में सर्वथा समर्थ है तब कर्म कर्तृत्व एवं कर्मभोक्तृत्व तोड़ने में भी सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है । जीव स्वयं का कर्ता एवं स्वयं कर्म बन्धन का विध्वंसक है । जब स्वयं कर्म करता है तब वह कर्मफल का भोक्ता भी है । निष्कर्ष यह है कि "स्वयं कर्ता स्वयं भोक्ता " और जो करेगा वह भरेगा, यह कथ्य जागतिक जीवों के विषय में अक्षरशः चरितार्थ है ।
सांख्यदर्शन कर्म का कर्ता "आत्मा" अर्थात् पुरुष को नहीं मानकर प्रकृति को मानता है । उसकी स्पष्टतः मान्यता है कि आत्मा अकर्ता हैं, एवं त्रिगुणातीत हैं तथापि वह भोक्ता है। क्योंकि जब आत्मा को कर्म का कर्ता माना जाता तब मुक्त अवस्था में स्थित आत्मा को भी कर्तृत्व रूप में अवश्य स्वीकारना होगा। उसके अभिमत में आत्मा कूटस्थनित्य है । उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन कदापि सम्भव नहीं जब जीवों को कर्ता माना जाये तब वह सदा कर्ता रूप ही रहेगा। वह कभी भी कर्म बन्धन के कारागृह से
गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 673-674, पृ. 297 " सव्वे तलक्खणा जीवा" 2 सांख्यकारिका, "अकर्ता निर्गुणों भोक्ता "
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