SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4. वृक्ष सचेतन है, क्योंकि उनकी सम्पूर्ण छाल उतार देने से वे मर जाते हैं, गर्भ की तरह । ( सचेनास्तरववः सर्वत्वगपहरणे मरणाद्, गर्भवत्) ' स जीवों के लिए विशेषण दिया है विशिष्ट विज्ञान यह बताने के लिए ही सूत्रकार ने प्रस्तुत पद दिया है। जीव के धर्म को समयसार में बतलाते हुए कहा है " आत्मा भी एक द्रव्य है और उसके गुण अनन्त हैं, उनमें से चेतनत्व असाधारण गुण है वह गुणधर्म अचेतन द्रव्य में विद्यमान नहीं है। चेतनतत्व अपने अनन्तधर्मों में अतिशय व्यापक है, इस कारण इसी को आत्मा - तत्व कहा जाता है। "प्रगटे निज अनुभवकरे, सत्ता चेतन रूप । " 3 3 4 उत्तराध्ययन सूत्र के अठाईसवें अध्ययन में सूत्रकार बताते हैं- "ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण है। "जीवो उवओगलक्खणो" । उपयोग का अर्थ चेतना की प्रवृत्ति, जिसमें चेतन गुण है वही जीव है, बाकी सब पदार्थ अजीव है । 2 अवश्य है जीव का लक्षण शुद्ध चैतन्य और ज्ञानमय है, पाया जाता हैं । चेतना गुण केवल जीव में पाया जाता है। परमात्मप्रकाश में स्पष्टतः उल्लेख है कि-जीव और अजीव में लक्षण भेद से वह लक्षण अन्य द्रव्यों में नहीं यथा “चिमित्तु - चिन्मात्र" । 5 प्रवचनसार जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थ में ज्ञान और आत्मा की अभिन्नता बतायी है, जैसे अग्नि ज्वलनक्रिया करने का कर्ता है और उष्णगुण ज्वलन क्रिया का प्रमुख कारण है, अग्नि और उष्ण व्यवहार से भिन्न है । परन्तु यथार्थता से भिन्न नहीं है, इसी प्रकार यह आत्मा जानने रूप क्रिया का कर्ता है, और ज्ञान - क्रिया का अभिन्न साधन है, इसमें व्यवहार से भिन्नत्व है, वस्तुतः आत्मा और ज्ञान एक ही है । 1 दशवैकालिक सूत्र, विवेचन पृ. 63 ( आत्मारामजी मा.) 2 उत्तरज्झयणाणि, 28/4 "आगइगइ विन्नाया" त्रस जीवों में गोम्मटसार के (जीवकाण्ड) उपयोगाधिकार में उल्लेख है कि साकार और अनाकार उपयोग के द्वादश भेद है उनमें से कोई न कोई उपयोग जीव में सदैव विद्यमान समयसार, भूमिका पृ. 3 परमात्मप्रकाश, दोहा 30-31 प्रवचनसार, गाथा 35-36 " तम्हा णाण जीवो णेयं" - Jain Education International 108 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy