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णं जीवे" जीव ज्ञान की अनन्तपर्यायों को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है। जब विशिष्ट चेतना शक्ति होती है, तभी विशिष्ट उत्थानादि बल होते है।
भगवतीसूत्र के अष्टम् शतक के दूसरे उद्देशक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक किसमें कितने उपयोग पाये जाते हैं, यह बताया गया, इससे स्पष्ट है कि क्योंकि सब जीवों में ज्ञान का तारतम्य सद्भाव रहता है ।
प्रज्ञापना सूत्र में जीव - अजीव की प्रज्ञापना दी है, उसी में पांचवां विशेषपद पर्यायपद है। इसमें विशेष का अर्थ जीव के चैतन्य गुण से गृहीत है, चैतन्य गुण ही जीव और अजीव को अलग सिद्ध करता है । वेदान्तदर्शन के सद्दश्य जीवद्रव्य एक नहीं है, किन्तु अनन्त है, अनेक जीवों में जो विभिन्न धर्म दृष्टिगत होते हैं, वे ही अनेक है । 2
दशवैकालिक के चौथे अध्ययन में जहां षड्जीवनिकाय का वर्णन है, वहां पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक एक शब्द प्रयुक्त है- "चित्तमंतमक्खाया” अर्थात् पांचों स्थावर भी चेतनामय हैं। मोहनीय कर्म के प्रबलोदय से एकेन्द्रिय जीव अल्प विकसित चेतना वाले होते है। उनसे कुछ अधिक विकसित चेतनस्वरूप द्वीन्द्रिय जीव होते हैं इसी प्रकार आगे उत्तरोत्तर जीवों में चेतना के विकास की धारा प्रवहमान हैं। पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों में चैतन्य लक्षित नहीं होती है, इस शंका का समाधान विद्वानों ने निम्नानुसार किया है
1. जल सचेतन है, क्योंकि वह भूमि से स्वयमेव उद्भूत होता है, मैंढ़क की सदृश्य । (भूमिखात् स्वाभाविक संभवात, दर्दूरवत्, सात्मकं जलं )
अग्नि सचेतन है, क्योंकि, वह आहार करने से बढ़ती है, बालक की तरह । (सात्मकोअग्निः, आहारेण वृद्धि दर्शनात्, बालकवत् )
वायु सचेतन है, क्योंकि वह बिना किसी दूसरे की प्रेरणा से निश्चित दिशा में गमन करती है, गौ की तरह । (सात्मकः पवनः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गमनाद्,
गोवत्)
2.
3.
1
(क) व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, 2 / 10, पृ. 247
(ख) जीवो उवओगमओ, द्रव्यसंग्रह
2
प्रज्ञापनासूत्र, पंचम विशेषपद, विवेचन
3 दशवैकालिक सूत्र, अध्य. 4, सूत्र 5
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