________________
ऐसा उल्लेख है, इससे यह परिशिष्ट है कि सर्व जीवों में ज्ञान के तारतम्य का सद्भाव है, यहां तक कि जो निगोद जीव है उनमें भी ज्ञान का अनन्तवां भाग उद्घाटित है, यदि ऐसा न हो तब जीव और अजीव की भेदरेखा नहीं रह पायेगी।
जैनागमों में जीव के दो भेद माने गये है - सिद्ध और संसारी। दोनों अवस्थाओं में शुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि से कोई भेदरेखा अंकित नहीं है पर कर्मों का ही एकमात्र अन्तर हैं। इसी विभेद के आधार से संसारी जीव के स्वरूप को जानने के लिए जैन दर्शन ने कुछ लक्षण बताये है जो इस रूप में है
चैतन्यता
आत्मा अनन्त गुणों की अक्षय निधि है, किन्तु उन सब गुणों में चैतन्य-गुण प्रमुख है। इसी को उपयोग-गुण भी कहा जाता हैं। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश ज्ञान की ज्योति से समान रूपेण प्रकाशमान हैं। ज्ञान के अभाव में आत्मा का अस्तित्व नहीं रह सकता।
आचारांग सूत्र में कहा है – “जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया" जो आत्मा है वह विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वह आत्मा है। जहां ज्ञान परिलक्षित होता है वहां आत्मा की प्रतीति होती है और जहां चेतना का आभास होता है, वहां ज्ञान की ज्योति अवश्य रहती है। जैसे सूर्य की किरणें और प्रकाश एक-दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते हैं। वैसे ही जिस पदार्थ में ज्ञान का अभाव है, वहां आत्मचेतना की प्रतीति भी नहीं होती
हैं।
सूत्रकृतांग सूत्र में अज्ञानवाद का निरसन करते हुए यह उलेख है कि अज्ञान से जीव अजीव हो जायेगा, ज्ञान गुण आत्मा का विशेष गुण है। चेतन से ही जीव की पहचान होती है।
___ भगवती सूत्र में जीव के अस्तित्व की शंका से ग्रस्त गौतम-स्वामी ने पूछा कि - जीव किस प्रकार आत्मभाव प्रदर्शित करता है तब प्रभु ने बताया कि - "उवओगलक्खणे
'आचारांगसूत्र, 5/5/166 'सूत्रकृतांगसूत्र, 12/535-536
106
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org