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आत्मा का यथार्थतः जो अवस्था है, उसे जो व्यवस्था दी है, वह अपने आप में मौलिक एवं मार्मिक है।
जैन दर्शन के सन्दर्भ में आत्मा के स्वरूप का प्रस्तुतीकरण
पदार्थ का प्रबोध कराने के लिए शब्द महत्वपूर्ण अमोघ साधन है। परन्तु, शब्द का रूपवान पदार्थों के स्वरूप का वर्णन करने में समर्थ हैं, किन्तु उसके द्वारा रूप रहित पदार्थों का वर्णन अंशतः किया है। शब्द में ऐसी शक्ति सम्भव नहीं है कि वह रूपादि से रहित पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादित कर सके। इसलिए शब्द आत्मा के यथार्थ स्वरूप को चित्रित करने में समर्थ नहीं है। आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि भौतिक गुणों से रहित है। इसलिए आगमों में कहा गया कि-"वहां तर्क का प्रवेश नहीं है, बुद्धि से उसका ग्रहण कथमपि कदापि सम्भव नहीं है वह पुद्गल से रहित होने के कारण एकाकी है। वह समग्र ज्ञेय का ज्ञाता है। वह शुद्ध स्वरूप आत्मा न दीर्घ है, न हृस्व है, न वर्तुल है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न मंडलाकार है न कृष्ण है, न पीत है, न श्वेत है, न हरित है, न रक्त है, न सुगन्धित है, न दुर्गन्धित है, तिक्त है, न कटुक है, न आम्ल है, न मधुर है, न कर्कश-मृदु-गुरु-लघु हैं न शरीर है, न जन्म मृत्यु का कर्ता है, न स्त्री-पुरुष नपुंसकवेदी है। वह स्व तथा पर के स्वरूप का ज्ञाता है, सम्यग्ज्ञानी है, उसके स्वरूप को बताने में कोई उपमा अंशतः समर्थ नहीं हैं, वह अरूपी सत्ता वाला है, अवस्था से विहीन है। एतदर्थ इसको व्यक्त करने वाला कोई शब्द विशेष नहीं है। तो प्रश्न उपस्थित होता है कि जब मन, बुद्धि और इन्द्रियां आत्मा का प्रत्यक्षीकरण करने में असमर्थ है तब फिर आत्मा के स्वरूप को कैसे जाना जा सकता है? इसका समाधान यह है कि जिन महापुरुषों ने अपने ज्ञान के द्वारा आत्मा का प्रत्यक्ष किया है वे आत्मा के स्वरूप को सम्यक्रूपेण जानते हैं, और कथन करते है और उनके द्वारा अभिव्यक्ति दी जाती है। जैसे विश्व के जितने भी द्रव्य है, उनमें कोई न कोई गुण अवश्य है। वैसे ही जीव द्रव्य अथवा आत्मद्रव्य में भी ऐसे अनेक गुण है जिनके माध्यम से उसका स्वरूप प्रकट होता है।
जैनधर्म एक अनुशीलन, (डॉ. राजेन्द्र मुनि), युनिवर्सिटी पब्लिकेशन्स, दिल्ली, पृ. 39 'आचारांगसूत्र 5/6/171, आत्मारामजी मा., पृ. 475
अत्मवाद, मुनिफूलचन्द्र, पृ. 5
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