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________________ जब जीव नहीं है तब कौन सुख-दुःख की अनुभूति करता है और इन्द्रियों के स्पर्श आदि सर्व विषयों को विशेष रूप से कौन जान पाता है।' इस प्रकार जीव (आत्मा) का शरीर से स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। परमात्मप्रकाश में आत्मा का अस्तित्व योगीन्दुदेव द्वारा रचित 'परमात्मप्रकाश' में आत्मा के तीन रूपों का बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा, पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। आत्मा है तभी उसके भेद प्रतिपादित है, इससे आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। इस ग्रन्थ की एक गाथा में उल्लेख है-"जो देह को आत्मा समझता है। वह वीतराग निर्विकल्प समाधि से समुत्पन्न हुए परमानन्द रूप अमृत पान नहीं करने वाला व्यक्ति वस्तुतः हुआ मूर्ख है, अज्ञानी है।' विशेष्यावश्यकभाष्य में भी आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए आ. जिनभद्रगणि ने कई प्रमाण दिए, जिनका वर्णन पिछले खण्ड में किया गया है, इस तरह प्रमाण सहित आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैन आगमों के परिप्रेक्ष्य में आत्मा का स्वरूप आत्मा शरीर से भिन्न एक स्वतन्त्र द्रव्य है, यह तथ्य समग्र आस्तिक दर्शन के द्वारा समर्थित है। परन्तु आत्मा का स्वरूप क्या है? इसमें एकरूपता नहीं है। कुछ विचारकों की मान्यता है कि आत्मा एकान्तरूप से नित्य है, कुछ चिन्तक उसे सर्वथा अनित्य-अशाश्वत मानते है। यह प्रश्न वस्तुतः जटिल रूप भी है क्योंकि आत्मा अमूर्त है। जब आत्मा अमूर्तिमय है, अतः इसके गुण लक्षणादि का सर्वांगपूर्ण परिचय सुगमता से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन इस दिशा में अतिशय क्रियाशील रहा है और इस क्षेत्र में चिन्तन के परिणामस्वरूप यह जटिलता न्यूनरूप हो पाई है, जैन दर्शन ने आत्मा की स्वरूपगत परिभाषा और व्याख्या को एक वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है। इतना ही नहीं ' वही, गाथा 183 ' परमात्मप्रकाश, (योगीन्दुदेव) दोहा 13, पृ. 20 104 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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