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प्रवर्तमान नोकर्म है उन्हें ही जीव मानते हैं, क्योंकि इस शरीर से भिन्न दृष्टिगत नहीं होता है। कोई सुख-दुःख रूप भाव को जीव मानते है।'
समयसार में इस शंका का समाधान इस रूप में है कि- "जो परमार्थ को नहीं जानते हैं, वे संयोगजन्य भावों को ही जीव कहते है। सर्वज्ञ ने जीव का स्वरूप पुद्गल से भिन्न प्रतिपादित किया है। जितने भी परवादी जीवों का स्वरूप बताते है वे सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम है। इस कारण वे चैतन्यभाव से शून्य पुद्गलद्रव्य से भिन्नरूप निरूपित करते है अतः चैतन्यस्वभावमय जीव-द्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है। अतः आत्मा का अस्तित्व स्वतन्त्र है। इस प्रकार समयसार में आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में अकाट्य प्रमाण उपलब्ध होते हैं।
पंचास्तिकाय में भी पांच अस्तिकायों का वर्णन है, उसी में जीवास्तिकाय का भी विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। जीव के स्वरूप व जीव-पुद्गल के सम्बन्धों को निरूपित करते हुए जीव द्रव्य को बिल्कुल स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है।
आत्मा संसारदशा में क्रमवर्ती अविच्छिन्न शरीर-प्रवाह में जिस प्रकार एक शरीर में रहता है, उसी प्रकार क्रम से अन्य शरीरों में भी रहता है इस प्रकार जीव का क्रम से समग्र शरीरों में अस्तित्व स्वतः सिद्ध होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जीव का अस्तित्व
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में 12 अनुप्रेक्षाओं का कथन हैं- उनमें वर्णित लोकानुप्रेक्षा में लोक में रहे हुए जीव और अजीव का वर्णन है। जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में उल्लेख है कि-"जो चार्वाकदर्शन ज्ञान को पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों का विकार मानते है, उनका कथन सत्यपूर्ण नहीं है क्योंकि ज्ञान के अभाव में जीव का अस्तित्व नहीं देखा जाता है।' क्योंकि यह जीव सत्प है और चैतन्य स्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रसिद्ध हैं जो जीव को जानते ही नहीं है वे जीव का अभाव कैसे सिद्ध कर सकते है।'
समयसार, गाथा 39-43, पृ. 78 २ वही, गाथा 44, पृ. 80 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा (आ. कार्तिकेय14), गाथा 181, पृ. 83, सोनगढ़ + वही, गाथा 182
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