SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध की गई है। लोक को जीव-अजीवमय बताया है यथा "जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए"। प्रवचनसार में वर्णित आत्मा का अस्तित्व ___ कुन्दकुन्दाचार्य रचित प्रवचनसार में ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र का वर्णन है। इस ग्रन्थ में आत्मा के स्वरूप तथा उसकी स्वभाव व विभाव दशा का विस्तृत रूप से विवेचन किया गया है। आत्मा के स्वतन्त्र रूप को सिद्ध करते हुए वर्णन प्राप्त होता है कि - आत्मा शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु हैं, वह अचेतन पुद्गल द्रव्यरूप नहीं है। जो सूक्ष्मपरमाणुरूप पुद्गल स्वरूप है वह चैतन्य से स्कन्धरूप नहीं है, वे अपनी शक्ति से ही पिण्डरूप हो जाते है। अतः निश्चय से आत्मा ज्ञान स्वरूप है, विकारमयी नहीं है।' यह शरीर मन-वचन सहित होने से पौद्गलिक है। इस कारण आत्मा कृत-कारित और अनुमोदितभावों से कर्ता नहीं है, क्योंकि शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है, जीव में अनन्त पुद्गल परमाणुरूप परिणमन शक्ति नहीं है। पुद्गल निज शक्ति से पौद्गलिक पर्याय है अतःएव जीव और शरीर में पर्याप्त अन्तर है, इस कारण दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्य है। इस प्रकार जो जीव और शरीर को एक ही मानते है, उनके मत का भी निरसन हो जाता है और आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व का बोध होता है। इस प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने ग्रन्थ में आत्मा के अस्तित्व को लेकर विस्तृत विचारणा की है। समयसार में वर्णित आत्मा का अस्तित्व कुन्दकुन्दाचार्य रचित समयसार में जीवाजीवाधिकार में जीव और अजीव दोनों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए दोनों को भिन्न-भिन्न रूप सिद्ध किया है। शिष्य कहता हैइस जगत में आत्मा के असाधारण लक्षण न जानने के कारण अत्यन्त विमूढ़ अज्ञानीजन परमार्थभूत आत्मा को नहीं जानते हैं। किसी के अभिमत में रागद्वेषात्मक जो अध्यवसाय है वह जीव है, कोई कर्म को जीव मानते है कोई नवीन और पुरानी अवस्था, भाव से जो 'वही, गाथा 36/3 'प्रवचनसार (कुन्दकुन्दाचार्य) गाथा 70, पृ. 203, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, आगास वही, गाथा 79 102 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy