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शरीर में जीव उत्पन्न होते है और नष्ट हो जाते है। शरीर का नाश होने पर उसका अस्तित्व नहीं रहता है। इस प्रकार भृगु पुरोहित ने आत्मा के नास्तित्व का कथन किया।'
पुरोहित पुत्रों ने कहा - आत्मा इन्द्रियों से दिखाई नहीं देती इतने मात्र से उसका नास्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा मूर्त-द्रव्य ही जाने जाते है। आत्मा अमूर्त हैं, वह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। उन्होंने कहा आत्मा है, आत्मा नित्य है, उसके द्वारा कर्मों का बन्ध होता है तथा कर्म-बन्ध के कारण ही जीव चतुर्विध गति संसार में भ्रमण करता है। इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के इस अध्ययन में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए चतुर्विध आधारभूत तथ्य निरूपित हुए है।
इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें अध्ययन “संजयीय" में संयतिराजा और गर्दभालिमुनि का वार्तालाप है। उसमें संयति राजा कहते हैं कि - लोक में जो क्रियावादी
और अक्रियावादी हैं उन्होंने आत्मा के अस्तित्व के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किए है, यथा क्रियावादी आत्मा में विश्वास कर आत्मकर्तृत्व को स्वीकार करते हैं और अक्रियावादी निम्न चार तथ्यों को स्वीकार करते हैं1. आत्मा का अस्वीकार 2. आत्मा के कर्तृत्व का अस्वीकार
कर्म का अस्वीकार पुनर्जन्म का अस्वीकार अतः आपके मत में क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ है?
इस प्रश्न के समाधान में गर्दभालि श्रमण ने कहा - "इन एकान्त क्रियावादी तथा अन्य वादियों ने जो कहा है, वह माया-पूर्ण है, मिथ्या-वचन है, अतः निरर्थक है। मैंने अपने ज्ञान से सभी एकान्त दृष्टि वालों को जान लिया है। वे अयथार्थ दृष्टिकोण रखते हैं किन्तु मैं परलोक के अस्तित्व तथा आत्मा के अस्तित्व को भलीभांति जानता हूं।'
उत्तराध्ययन सूत्र के 36वें अध्ययन में जीव-अजीव का विस्तार से विवेचन है तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय के विभिन्न प्रकारों का विश्लेषण करके उनमें चेतन सत्ता
उत्तरज्झयणाणि, 14/18, जैन विश्वभारती, लाडनूं
उत्तरज्झयणाणि, गाथा 19, (नो इन्दियगेज्झ) अध्य-14, 'उत्तरज्झयणाणि, गाथा 18/23 वही, गाथा 18/26-27
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