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संगरहितता
संग का अभिप्राय सम्बन्ध है । जीव की स्वाभाविक गति उर्ध्व है,
किन्तु कर्मों के संग अथवा सम्बन्ध के कारण उसे नीची अथवा तिरछी गति भी करनी पड़ती है। कर्मों का संग छुटते ही वह अपनी स्वाभाविक उर्ध्व गति करता है ।
इन कारणों को और स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकारों ने कुछ उदाहरण दिये हैजैसे तुम्बे पर मिट्टी का लेप कर देने पर वह पानी नीचे चला जाता है और लेप दूर होते ही वह पानी के ऊपर तैरने लगता हैं, वैसे ही कर्मभार से आक्रान्त आत्मा उसके आवेश से संसार में परिभ्रमण करता रहता है, किन्तु उस कर्मभार के दूर होते ही ऊर्ध्व गमन करता 1
फली में रहा हुआ एरण्ड का बीज फली का बन्धन टूटते ही छिटक कर ऊपर जाता है वैसे ही कर्मबन्धन से मुक्त होते ही यह जीव ऊपर जाता है।
अग्नि की शिखा वायु के झोंके के अनुसार तिरछी तथा चारों और घूमती है,
किन्तु वायु के झोंके के दूर होते ही वह स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है।' इस प्रकार इन दृष्टान्तों से सिद्ध होता है कि मुक्त होने के बाद जीव की ऊर्ध्वगति होती है। जैन दर्शन में आत्मा के स्वरूप की सारभूत अवधारणाएँ
बन्धन का टूटना संसारी अवस्था में जीव कर्मों के बन्धन से जकड़ा रहता है, उस बन्धन के टूटते ही जीव अपनी स्वाभाविक उर्ध्व गति से गमन करता है । स्वभाव के कारण उर्ध्वगामिता का स्वभाव होने से मुक्त जीव उर्ध्वगति करता है। जब तक जीव कर्मों के बन्धन में फंसा रहता है, तब तक नरक - निगोद आदि अनेक गतियों में परिभ्रमण करता रहता है, किन्तु कर्मों से मुक्त होते ही वह स्वभाव से ऊपर जाता है।
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जैन दर्शन में आत्मा या जीव के स्वरूप के बारे में विस्तार से विचार किया गया हैं । आगमों में आत्मस्वरूप के बारे में विस्तृत वर्णन मिलता है। वह संक्षेप में इस प्रकार है
जीव स्वरूपतः अनादिनिधन, अविनाशी और अक्षय है । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से उसका स्वरूप कभी नष्ट नहीं होता, तीनों कालों में एक जैसा रहता है, इसलिए
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(क) तत्वार्थसूत्र ( सुखलाल जी संघवी ) पृ. 238
(ख) तत्त्वार्थसूत्र, केवलमुनि जी, पृ. 469
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