SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने पर ही अध्यात्मवाद के क्षेत्र में गति से प्रगति हो सकती है। इसी कारण सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने सर्वप्रथम आत्म द्रव्य का निर्देश किया है। भगवती सूत्र में आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी विषयवस्तु भगवती सूत्र में भी कतिपय स्थानों पर जीव के अस्तित्व का समर्थन किया गया है। भगवती सूत्र के एकादशम शतक में इन्द्रभूति गौतम गणधर ने प्रभु महावीर से पूछा कि जिनकी चेतना अल्पविकसित है, ऐसे एकेन्द्रिय जीव जिन्हें कर्मबन्ध, उसके कारण और बन्ध से मुक्त होने के उपाय ज्ञात नहीं है, ऐसी स्थिति उनके कर्मबन्ध कैसे होता है? क्योंकि उनके द्रव्यमन भी नहीं हैं? प्रभु ने इस शंका का समाधान करते हुए फरमाया कि -एकेन्द्रियवनस्पातिकायिक जीवों में भी अन्तश्चेतना तथा भावमन होता है, जिसके कारण वे चाहे विकसित चेतना वाले न भी हो तथापि मिथ्यात्वदशा में अवस्थित होने से कर्मबन्ध कर लेते है।' अर्थात् उनके कर्मोपार्जन होता है। __ इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि एकेन्द्रिय आदि में भी जीव है, आत्मा है। इस सूत्र से आत्मा की सिद्धि होती है। इस प्रकार भगवतीसूत्र में अन्य स्थल पर भी जीव सिद्धि हेतु प्रश्न किया-"जीव है या नहीं?" तब भगवान ने कहा-“गौतम! जब जीव का अस्तित्व नहीं है तब कौन उत्थान करता? कौन कर्मबल, और पुरुषाकार-पराक्रम करता? यह कर्म-बल-वीर्य और पुरूषाकार-पराक्रम जीव की स्वतन्त्र सत्ता का निदर्शन है"।' राजप्रश्नीय सूत्र में आत्मा के अस्तित्व का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र में राजा प्रदेशी के अन्तर्मन मन में आत्मा के विषय में जो शंकाएं थीं उनका समाधान श्रमण केशी कुमार ने किया उसका वर्णन है। राजा प्रदेशी अक्रियावादी था, उसे आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व पर अणुमात्र भी विश्वास नहीं था। वह आत्मा और शरीर को एकमेक मानता था। तब केशी श्रमण ने विभिन्न युक्तियों द्वारा शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध कराया। प्रदेशी राजा ने आत्मा को प्रत्यक्ष देखने के लिए अनेक प्रयत्न किये किन्तु जब आत्मा नहीं दिखाई नहीं दी तो उन्होंने यह धारणा स्थिर की कि आत्मा का अस्तित्व नहीं ' व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, 11/1 सूत्र, मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृ. 10 * व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, पृ. 10 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy