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आत्मा का क्रियाफल के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में जब फल के समय तक आत्मा भी नहीं रहती, क्रिया भी उसी क्षण नष्ट हो गई, तब ऐहिक और पारलौकिक क्रियाफल को कौन भोगेगा? किन्तु जीवों को कर्म फल का भोक्ता के रूप में देखा जाता हैं? अतः आत्मा का अस्तित्व है।' स्थानांग सूत्र में वर्णित आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी विषयवस्तु
स्थानांग सूत्र का प्रथम सूत्र आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व का बोध सूचक है। “एगे आया” आत्मा एक है। ब्रह्म आत्मा को एक मानते हैं किन्तु उनका अभिप्राय अलग हैपृथक् रूप में है समस्त संसार में एक ही आत्मा है जो प्रत्येक प्राणी में अवस्थित है, उसके अनेक रूप माया के संसर्ग के कारण बनते है।” जैसे चन्द्रमा एक है किन्तु पृथ्वी पर रहे जल के अनेक घरों में प्रतिबिम्बत होकर वह अनेक रूपों में उदभासित होता है।' पर जैनदर्शन की अमर मान्यता इससे पृथक् है, वह अनन्त आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार करता है। किन्तु यहां एक कहने से तात्पर्य यह है कि - प्रत्येक वस्तु में दो धर्म रहते है सामान्य और विशेष।'
आत्मा के एकत्व और अनेकत्व सम्बन्धी प्रश्न भी उपर्युक्त सामान्य और विशेष दृष्टिकोण पर आधारित है। आत्मा में जो ‘एकत्व' है वह सामान्य धर्म को लेकर है। ‘एगे आया' इस सूत्र के द्वारा आत्मा के आत्मत्व रूप सामान्यधर्म के दृष्टिकोण से प्रतिपादन किया गया है, संसार में जितनी भी आत्माएं हैं वे सब ‘उपयोग-लक्षण' की दृष्टि से समान है। अतः आत्मा का एकत्व संख्या की दृष्टि से न मानकर उपयोग लक्षणात्मक समानता की दृष्टि से मानना सर्वथा सुन्दर है, तर्क-सम्मत भी हैं।
____ 'एगे आया' का अन्य अभिप्राय है कि सम्पूर्ण विश्व षड्द्रव्यात्मक है, उन छ: द्रव्यों में आत्मा भी एक सर्वथा स्वतन्त्र द्रव्य है, यह कथन आत्मा के स्वतन्त्र द्रव्यत्व को प्रकट करता है। इस मन्तव्य से उन मतों का जहां स्पष्टीकरण हो जाता है वहां निश्चय भी हो जाता है।
। वही, गाथा विवेचन, पृ. 37 2 एक एव हि भूतात्मा भूते-भूते अवस्थितः।
एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्।। स्थानांगसूत्र (आत्मारामजी मा), पृ. १ अनुयोग सूत्र, (द्विनाम प्रकरण), (मधुकरमुनि), आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृ. -140 स्थानांग सूत्र, वही, सूत्र 12, पृ. 10
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