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स्पर्शन - रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्ररूप विषय पांचों इन्द्रियों के उपादानकरण है, उनका गुण भी चैतन्य नहीं है अतः भूत समुदाय का गुण चैतन्य नहीं हो सकता । इन्द्रियों को संकलित रूप से जो ज्ञान होता है, वह आत्मा के अतिरिक्त किसको हो सकता है?
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देह विनाश के साथ आत्मा का विनाश मानने पर तीन तथ्य इस रूप में हैंकेवलज्ञान, मोक्ष आदि के लिए की जाने वाली तप, संयम, व्रत, नियम की साधना निष्फल रूप सिद्ध होगी ।
किसी भी व्यक्ति को दान, सेवा, परोपकार आदि पुण्यजनक शुभकर्मों का फल नहीं पायेगा ।
हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापकर्म अष्टादर्श करने वाले व्यक्ति निश्शंक होकर पापकर्म में प्रवृत्त होगा। क्योंकि उनकी आत्मा तो शरीर के साथ नष्ट हो जायेगी । तथा पापकर्म के फल को भोक्ता कोई नहीं होगा ।'
क्षणिकवादियों का स्पष्टतः कथन है कि रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध और विज्ञानस्कन्ध, इन पांचों स्कन्धों से भिन्न अथवा अभिन्न सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है । इन पंच स्कन्धों से भिन्न आत्मा का प्रत्यक्षतः अनुभव नहीं होता है और आत्मा के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाला कोई लिंग भी गृहित नहीं होता है। 2
क्षणिकवाद का ही अपर रूप है चातुर्धातुकवाद, चार धातु है 1. पृथ्वीधातु, 2. तेजधातु, 3. जलधातु व वायुधातु । ये चारों पदार्थ जगत को धारण करते है, अतः धातु कहलाते हैं। ये चारों धातु एकाकार होकर भूतसंज्ञक रूपस्कंध बन जाते हैं, शरीर रूप में परिणत हो जाते हैं, तब इनकी जीवसंज्ञा अर्थात् आत्मा संज्ञा होती है । और ये भूतसंज्ञक रूपस्कंध होने के कारण क्षणिक है ।
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इन मन्तव्यों का निरसन करते हुए सूत्र कृतांग सूत्र में बताया गया है कि क्षणिकवाद के अनुसार पदार्थ मात्र आत्मा अथवा दान आदि सब क्रियाएं क्षणिक है, इसलिए क्रिया करने के क्षण में ही कर्तास्वरूप - आत्मा का समूल विनाश हो जाता है तब
1 सूत्रकृतांग सूत्र, (मधुकरमुनि), पृ. 22
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सूत्रकृतांगसूत्र, गाथा 17, पृ. 35
सूत्रकृतांग सूत्र, गाथा 18, (मधुकरमुनि) आगम प्रकाशन समिति, पृ. 37
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