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कोई पुरुष म्यान से तलवार निकालकर दिखाये कि 'यह तलवार है, यह म्यान' पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकालकर चाक्षुष प्रत्यक्ष करवाए कि यह आत्मा है, यह शरीर है। इसी तरह मूंज और शलाका, मांस से अस्थि, हरततल में आंवला, दधि से नवनीत, तिल से तेल, ईक्षु से रस, अरणी से अग्नि, निकाल कर दिखा सकते हैं, वैसे ही कोई आत्मा को शरीर से निकालकर नहीं दिखा सकता हैं कि-यह आत्मा है, और यह शरीर है।
पंचमहाभूतवादी आत्मा के नास्तित्व तर्क इस रूप में प्रस्तुत करते हैंजल के बिना बुदबुदा नहीं होता, इसी प्रकार भूतों से व्यतिरिक्त आत्मा नहीं है। जैसे केले के तने की छाल को निकालने पर उस छाल के अतिरिक्त अन्त तक कुछ भी सारभूत पदार्थ हस्तगत नहीं होती है, इसी प्रकार भूतों के विघटित होने पर भूतों के अतिरिक्त और कुछ भी सारभूत तत्व प्राप्तव्य नहीं है। किसी व्यक्ति के द्वारा अलात को घुमाने पर ऐसा लगता है कि चक्र संचक्रमान है, वैसे ही भूतों का समुदाय भी विशिष्ट क्रिया के द्वारा जीव की भ्रान्ति उत्पन्न कर देता है। जब निर्मल दर्पण में बाह्य पदार्थ का प्रतिबिम्ब अंकित होता है, तब ऐसा अनुभव होता है कि वह पदार्थ दर्पण के भीतर स्थित है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता हैं। जैसे गन्धर्वनगर आदि यथार्थ न होने पर भी यथार्थ का भ्रम उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार काया के आकार में परिणत भूतों का समुदाय भी आत्मा का भ्रम उत्पन्न कर देता है।
सूत्रकृतांगसूत्र पंचमहाभूतवाद का निरसन करते हुए, इस रूप में है- पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के संयोग से चैतन्यादि गुण उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि पंचमहाभूतों का गुण चैतन्यस्वरूप नहीं है। अन्य गुण वाले पदार्थों के संयोग से अन्य गुण वाले पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। जैसे बालु में तेल उत्पन्न करने की स्निग्धता रूप गुण नहीं है तो बालु को पीलने से तेल कैसे निकल पायेगा।
' सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र 21, “अस्मिश्चार्थे बहवे दृष्टान्ताः"
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