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सकती है। सोऽहं – मैं वही हूं – अर्थात् परमात्मा से भिन्न नहीं हूं। प्रस्तुत दर्शन का उद्घोष है कि - 'अप्पा सो परमप्पा'
आचारांग में उल्लेख है कि जो आत्मा के स्वरूप को जानता है, वही आत्मवादी है, लोकवादी है कर्मवादी है, क्रियावादी है। सूत्रकृतांगसूत्र में आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी विषयवस्तु
सूत्रकृतांग सूत्र में कतिपय वादों का निरसन करते हुए आत्मा के अस्तित्व को इस रूप में सिद्ध किया गया हैं।
__ पंचमहाभूतवादियों का कथन है कि-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इनसे एक आत्मा उत्पन्न होता है। इन पंचमहाभूतों से भिन्न, परलोक में जाने वाला सुख-दुःख का भोक्ता आत्मा नाम कोई अन्य पदार्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा के अस्तित्व का बोधक अन्य कोई प्रमाण नहीं है। इन पांच भूतों में से किसी एक भूत की न्यूनता अर्थात् वायु या तैजस की न्यूनता अथवा दोनों की न्यूनता हो जाने पर प्राणी मृत घोषित हो जाता है। अतः इन भूतों से अतिरिक्त किसी जीव या आत्मा का अनुमान भी नहीं होता।
___कोई दर्शन “तज्जीवतच्छरीरवादी” के रूप में शरीर से चैतन्य-शक्ति की उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति मानता है, उनका मन्तव्य है कि शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी नष्ट हो जाती है। शरीर से बर्हिभूत चैतन्य प्रत्यक्षतः दृष्टिगत नहीं होता, इसलिए कहा गया है “पेच्चाणते सन्ति' अर्थात् मरने के बाद परलोक में वे आत्माएं नहीं जाती और “णत्थिसत्तोववाइया न ही पुनःर्जन्म होता है इसी कथ्य का समर्थन बौद्ध साहित्य में 'अजीतकेशकंबल' के कथन से प्राप्त होता है, उसका स्पष्टतः कथन है कि पैर के तलवे से ऊपर, शिर के केशाग्र से नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है, शरीर ही जीव है। शरीर जीता है तब तक जीता है अन्यथा मर जाता है, उन्होंने उक्त मत की पुष्टि के लिए कुछ तर्क दिए हैं
' वही, सूत्र 1/2 "जे आयावाइ, लोयावाइ, कम्मवाइ, किरियावाइ' पृ. 5 २ सूत्रकृतांगवृत्ति, आचार्यशीलांकसूरि, पत्र16, 'ततश्चमृतइतिव्यपदेशः ............... चैतन्यादि।
सूत्रकृतांगसूत्र, अध्ययन 1, उद्दे. 1, गाथा 11, “पेच्चाणते सन्ति", पृ. 25 वही, गाथा 11, “णत्थिसत्तोववाइया" सूयगड़ो (आ. तुलसी) 2-1, पृ. 15-17
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