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प्रवहमान है, फलस्वरूप उन कर्मों का आवरण इतना अधिक घनीभूत हो गया है कि उसे अपने अस्तित्व का बोध ही नहीं हो पा रहा है? – “मैं कौन हूँ?" इस जन्म के पहले भी मेरा अस्तित्व था या नहीं? तथा यहां से मैं कहां जाऊंगा? आदि प्रश्न अनुत्तरित्त ही रह जाते हैं।
प्रश्न उद्भूत होता हैं कि संसार में दृश्यमान प्राणियों में आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है या नहीं? क्योंकि सभी आत्मा को चेतनस्वरूप मानते है पर स्वतन्त्र अस्तित्व के विषय में मतभेद है। आस्तिक दर्शन आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करते है
और यह भी मानते है कि आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार उर्ध्व-अधो अथवा तिर्यगदिशा में जन्म लेता है और तप-जप, ज्ञान-ध्यान, स्वाध्याय-समता, संयम द्वारा कर्मबन्धों को समूलतः उन्मूलित कर निर्वाण को प्राप्त करता है। परन्तु नास्तिक दर्शन इस तथ्य से सहमति नहीं है। उसकी दृष्टि में शरीर ही आत्मा है। शरीर के अतिरिक्त अपने कृत-कर्म के अनुसार स्वर्ग-नरक आदि योनियों में परिभ्रमणशील तथा कर्मबन्धन को कारागृह से मुक्त होने वाली स्वतन्त्र आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। जैन दर्शन को यह तथ्य मान्य नहीं है। आगमों में प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणों एवं आत्म-अनुभव से सिद्ध आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्ति दी है। आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व या तो "सहसम्मइयाए" अर्थात् स्वमति से अथवा 'परवागरणेणं' तीर्थंकर के उपदेश से अथवा किसी ज्ञानी के वचनों से होता है कि "सोऽहम" वह मैं हूं, अर्थात् द्रव्य एवं भाव दिशा-विदिशाओं में परिभ्रमणशील यह मेरा आत्मा ही है। अस्तु यही सूत्र आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व का स्पष्टतः उद्घोषक है।'
इसी सन्दर्भ में अन्य तथ्य यह है कि - आत्मा का स्वरूप न केवल परमात्मस्वरूप से सर्वथा भिन्न ही है और न ही वह परमात्मा या ब्रह्म का अंश है, क्योंकि वैदिक परम्परा के विचारकों ने स्वतन्त्र रूप से आत्मा में ईश्वर बनने की सत्ता स्वीकार नहीं की है। कतिपय विचारकों की दृष्टि में माना है कि वह ब्रह्म में समा सकती है और ब्रह्म की इच्छा होने पर पुनः संसार में परिभ्रमण कर सकती है। परन्तु जैन दर्शन ने आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार किया है, स्पष्टतः मन्तव्य है कि - आत्मा परमात्मा बन
' आचारांग सूत्र, 1/5 (आचार्य आत्माराम जी) पृ. 34
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