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2. जीव सर्वव्यापी है या नहीं?
सांख्य आदि दर्शनों में जीव को सर्वव्यापी माना हैं यह तथ्य कैसे है?
जीव सर्वव्यापी नहीं शरीरव्यापी है। क्योंकि उसके गुण शरीर में ही उपलब्ध है अर्थात् वर्तमान में जितना शरीर मिला हैं, उसी में आत्मा समाहित है। बाहर नहीं रहती। जैसे घड़े के गुण घड़े से बर्हिभाग में उपलब्ध नहीं है अतःएव संसारी आत्मा शरीर प्रमाण
ही है।
___ शरीरव्यापी मानने पर ही जीव में कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्धत्व, मोक्षत्व, सुखत्व तथा दुःखत्व एवं संसार युक्तिसंगत रूप में घटित होता है। इस तरह श्रमण भगवान महावीर ने इन्द्रभूति गौतम की शंकाओं का सयुक्तिक समाधान किया। यद्यपि आत्मा का ज्ञान गुण ऐसा है, जो ज्ञेय की अपेक्षा सर्वव्यापी भी है। पुनः केवली समुद्धात की अपेक्षा भी जीव को सर्वलोकव्यापी रूप में जाना जाता है। इस प्रकार परस्पर विरोधी विचार थे। कोई उसे स्वतन्त्र एवं अनेक मानते थे, कोई ब्रह्म की ही एक मात्र सत्ता मानते है। जैन आगमों में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने वाले सम्बन्धी विभिन्न सन्दर्भ
जैन दर्शन यथार्थवादी है, उसकी दृष्टि में जीव और अजीव दोनों की स्वायत्त स्वतन्त्र सत्ता है। समग्र जीवन चक्र का केन्द्र है- जीव। उसके अस्तित्व के सूचक सूत्र जैन दार्शनिक साहित्य की एक विलक्षण मूल्यवान धरोहर है। आगम साहित्य में जीव सिद्धि के प्रमाण विपुल मात्रा में उपलब्ध है।
जैसे वेदान्त का मूल सूत्र है- “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” वैसे ही जैनदर्शन का मूल है आत्म-जिज्ञासा। आचारांग सूत्र में आत्मा के अस्तित्व से सन्दर्भित जिज्ञासा
आचारांग सूत्र में जिज्ञासा है कि "के अहं आसि? के वा इओ चुए पेच्चा भविस्सामि"। आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व मानने वाले दर्शनों का यह अमर उद्घोष है कि संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मबद्ध होने के कारण जन्म-मरण के अजस्र प्रवाह में
1 जैन दर्शन में जीवतत्व, (साध्वी ज्ञानप्रज्ञा) पृ. 73 ' आचारांगसूत्र 1/1/4 आचार्य आत्मारामजी पृ. 30
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