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ही हैं। इसलिए भूतधर्म नहीं हो सकता। वेदों में भूतों के अभाव में विज्ञान का अस्तित्व मान्य है
एक जिज्ञासु ऋषि से पूछा - "अस्तमिते आदित्ये, चन्द्रमस्यतमिते, शान्तेऽग्नो शान्तायं वाचि, कि ज्योतिरेवायं पुरुषः? आत्मज्योति”। जब सूर्य अस्तंगत हैं, चन्द्र अस्तंगत है, अग्नि शान्त हो जाती है, तथा वचन शान्त हो जाता है। तब पुरुष में कौनसी ज्योति होती है? तब ऋषि ने कहा-हे राजन्! उस समय आत्म ज्योति रहती हैं। यहां पुरुष का अर्थ आत्मा और ज्योति का अर्थ है ज्ञान।
जब बाह्य सभी प्रकाश अस्त हो जाते हैं, अर्थात् विलुप्त हो जाते हैं तब भी आत्मा में ज्ञान रूप प्रकाश रहता हैं, अतः ज्ञान को भूतों का धर्म नहीं कहा जा सकता है।' आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में इन्द्रभूति गौतम की विभिन्न शंकाएं और भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त समाधान निम्नानुसार है
नारक तिर्यन्च- मनुष्य और देव में आकाश की सदृश्य एक ही आत्मा मानने पर क्या दोष है?
समाधान- आकाश के सदृश्य सभी सशरीरियों में एक आत्मा सम्भव नहीं हैं। क्योंकि आकाश का लिंग और लक्षण सर्वत्र एक ही हैं, किन्तु जीव प्रत्येक पिण्ड में अतिशय विलक्षण है, जैसे घड़े आदि, वे पृथक्-पृथक होते हैं, वैसे ही लक्षण भेद के कारण जीव एक नहीं है।
यदि जीव एक ही हो सुख-दुःख और बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था कैसे सम्भ हो पायेगी? क्योंकि हम प्रत्यक्षतः निहारते हैं कि संसार में एक जीव सुखी हैं और दूसरा दुःखी। क्योंकि चतुर्विध गतियों में से नारक और तिर्यञ्च ही अधिक हैं, वे सब मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं से संत्रस्त हैं और दुःखी हैं ऐसी स्थिति में एक ही जीव के मानने पर संसार में कोई सुखी रह ही नहीं पायेगा, वैसे सर्व जीवों में उपयोग रूप सामान्य लक्षण समान से है। किन्तु प्रत्येक जीवात्मा में विशेष-विशेष उपयोग का अनुभव होने से अनेक हैं। अतः जीव प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् रूप से अस्तित्व लिए हुए है।
' (क) विशेषावश्यकभाष्य भाग 2 (उत्तराद्ध) पृ. 43 (ख) मिला प्रकाश, खिला बसन्त पृ. 75
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