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________________ "भूतेभ्यः समुत्थाय” का तात्पर्य है कि - विज्ञानधन आत्मा को जब घट या वस्त्र का साक्षात्कार होता है तब उसका उपयोग उसमें लगता है, अर्थात् घट-घट आदि ज्ञेय वस्तु रूप भूतों से उत्पन्न होकर वह घट विज्ञान अथवा पट-विज्ञान हो जाता हैं। अतः यह कहा जा सकता हैं कि घटविज्ञानरूप जीव घट नामक भूत से समुत्पन्न है और पटविज्ञान रूप जीव पट नामक भूत से उत्पादित हैं। इस प्रकार जीव की अनन्तविज्ञान पर्यायें उन-उन भौतिक विषयों की अपेक्षा से उत्पन्न होती हैं, और विज्ञान की वे पर्यायें जीव से अभिन्न होने के कारण जीव उन-उन विज्ञानभूतों से उत्पन्न होता हैं, यह कथन उचित हैं। "तान्येवानुविनश्यति” – पद का अर्थ है कि कालक्रम से वर्तमान ज्ञेय वस्तु पर ध्यान केन्द्रित न रहने से उस विषय में व्यवधान अथवा अवरोध से, आत्मा के विषयान्तर में उपयोग का उपयोग करने पर जब घटादि की ज्ञेयरूपता विनष्ट हो जाती हैं, तब घट विज्ञानादि आत्मपर्याय (चेतना की अवस्था विशेष) भी नष्ट हो जाती है और पटादि रूप विज्ञान आत्मा उत्पन्न होती है। पर यह नहीं कि विज्ञानघन जीव का नाश होता है अपितु पर्याय का नाश होता हैं। ____ आत्मा यद्यपि पूवपर्याय के नाश की अपेक्षा से व्यय स्वभावी हैं और अपर पर्याय की उत्पत्ति की अपेक्षा उत्पाद स्वभावी हैं, किन्तु विज्ञानसन्तति की अपेक्षा विज्ञानघन जीव अविनाशी - अर्थात् ध्रुव रूप भी सिद्ध है। न प्रेत्यसंज्ञा अस्ति- जब आत्मा का उपयोग अन्य वस्तु में प्रवृत्त होता हैं, तब पूर्व विषय के विज्ञान के विलुप्त हो जाने से उसकी ज्ञान संज्ञा नहीं होती, क्योंकि उस समय जीव का उपयोग केवल वर्तमान वस्तु विषय में होता हैं। जैसे कि जब घट में उपयोग लग रहा है तो वस्त्र से निवृत्त हो जायेगा। यहां यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब विज्ञान की उत्पत्ति भूतों से होती है तो भूतों का धर्म विज्ञान है - जैसे चन्द्रिका चन्द्रमा का धर्म है। यदि भूत अर्थात् पदार्थ नहीं होंगे तब विज्ञान की उत्पत्ति भी नहीं होगी। इसका समाधान यह है कि - विज्ञान का सर्वथा अभाव नहीं है। जबकि विशेष विज्ञान का नाश होने पर भी विज्ञान संतति-सामान्य का नाश नहीं होता। भूतों का विशेष ज्ञान के साथ अन्वयव्यतिरेक सिद्ध होने पर भी सामान्य विज्ञान के साथ व्यतिरेक असिद्ध 90 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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