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वेद वाक्यों के समन्वय से आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि
वेद ग्रन्थों में जीव के अस्तित्व के विषय में कतिपय वाक्य विन्यास हैं जिनके सम्यक् अर्थ न समझने से मन में सन्देह होता कि- वस्तुतः तत्व क्या हैं? और तत्व का तात्पर्य क्या है?
___ जैसे-"विज्ञानधन" एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यासंज्ञास्ति" इस पद का सामान्य अर्थ यह है कि- पृथ्वी आदि भूतों के विज्ञान अंशों के समुदाय से विज्ञानधन समुदभूत होता हैं। वही विज्ञानधन आत्मा है। इसके अतिरिक्त ज्ञानादि गुणों से युक्त कोई आत्मा नहीं है, जो परलोक से आती है और न ही भूतों के नष्ट होने पर पुनः परभव में जाती हैं। अतःएव यह जीव पूर्वभव में अमुक स्वरूप में था और वहां से इस जन्म में आया हैं, और यहां से मरकर अमूक रूप में होगा, ऐसा कोई एक जीव के अस्तित्व की सूचक प्रेत्यसंज्ञा-परलोक व्यवहार में भी सम्भव नहीं है। अतः जीव का अस्तित्व केवल वर्तमान तक ही सीमित है। दूसरी और वेद वाक्य है कि-"न हि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिये प्रियाप्रिययोरपहतिरास्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः” इस वाक्य में जीव का अस्तित्व अभिव्यक्त होता है।
“अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः” इस वाक्य से अग्नि होत्र आदि क्रिया का फल परभव में स्वर्ग बतलाया है, यह स्वर्ग-गमन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृत किये बिना सम्भव नहीं हो सकता हैं।
विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में श्रमण भगवान महावीर के श्री मुख से इन पदों का सम्यक् अर्थ प्रस्तुत किया गया हैं
“विज्ञानघन एवैतेभ्यो” अर्थात् जीव ही विज्ञानघन है, विशेष-ज्ञान को विज्ञान कहते है, जो ज्ञान-दर्शन रूप है, वही तो आत्मा है। इस विज्ञान से अनन्य होने के कारण जो उसके साथ एकरूप में हो गया हैं, वह जीव विज्ञानघन कहलाता हैं। विज्ञानघन के साथ जो ‘एव' पद है, वह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि-जीव विज्ञानरूप ही है। जीव से विज्ञान भिन्न नहीं है, यदि वह भिन्न रूप हो जाये तो जीव जड़ स्वरूप हो जायेगा। आचारांगसूत्र में कहा गया है -- "जे आया से विन्नाया-जे विन्नाया से आया" ।
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