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पर्यायों द्वारा आत्म द्रव्य की सिद्धि
"जीव' पद का अर्थ शरीरपरक नहीं है। क्योंकि जीव और शरीर दोनों के पर्याय भिन्न-भिन्न हैं। जिन शब्दों के पर्यायों में भेद हैं तो उनके अर्थों में भी स्पष्टतः भेद हैं। जैसे-जीव के पर्यायवाची शब्द है- जन्तु, प्राणी, सत्व, आत्मा आदि। जबकि शरीर के पर्याय है- काया, गात्र, तन, देह, वपु, तन्तु आदि। इस प्रकार पर्याय की दृष्टि से भेद अवश्य है तथापि मूलतः अर्थ भेद नहीं है ऐसी स्थिति में संसार में वस्तुभेद नहीं हो पायेगा, निष्कर्ष यह है कि सब वस्तु एक समान हो जायेंगे। इसलिए 'जीव' शरीर संगी है, इसी दृष्टि से व्यवहार नय से शरीर को जीव कहा गया है, पर निश्चयदृष्टि से जीव
और शरीर भिन्न-भिन्न है। ऐसा न होने पर किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर ऐसा क्यों कहा जाता है कि-जीव चला गया अब शरीर को जला दो। इससे यह स्पष्ट है कि शरीर और जीव के लक्षण भिन्न-भिन्न है। एक जड है जबकि अन्य चेतन चेतनादि पर्यायों में परिणामशील जो द्रव्य हैं, वही वस्तुतः आत्मा हैं।' विशेषावश्यकभाष्य में आगम प्रमाण से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
सर्वज्ञ आप्त पुरुषों द्वारा कथित उपदिष्ट वचन आगम कहलाता हैं। आप्त पुरुष-समग्र संशयों का निवारक तथा सत्यवादी होते है। आप्त पुरुषों द्वारा जो वचन व्यक्त आगम है, उनके यत्र-तत्र आत्मा के स्वरूप व अस्तित्व सिद्धि पर प्रकाश डाला गया है। आचारांग सूत्र, स्थानांग सूत्र आदि में आत्मा का अपेक्षाकृत विस्तृत वर्णन मिलता है। अर्थापत्ति प्रमाण से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
स्याद्धासिद्धि में स्पष्टतः उल्लेख है कि धर्मादिकार्य की सिद्धि होने से उनका कर्तृत्व भी स्वतः सिद्ध होता है। धर्मादि से सुखरूप परिणाम परिदृश्यमान है एतदर्थ धर्मादि का कर्ता अवश्य होना चाहिए। वह कर्ता स्वयं आत्मा है।
इस प्रकार बहुविध प्रमाणों से आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है।
| "अत्योदेहोच्चिय से तं णो पज्जायवयणभेतात्तो।।
णाणादिगुणो य जत्तो, भणित्तो जीवो ण देहोत्ति।।" वही गाथा, 1576 “जीवोऽत्थि वयो सच्चं, मल्वयणातोऽवसंसवयणंव। सवण्णुवयणत्तो वा, अणुमतसवण्णु वयणं व।" वही, गाथा, 1577
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