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उसके प्रतिपक्षी “जीवति द्रव्यभावप्राणैर्जीवः इति जीवः” उक्त व्युत्पत्ति सिद्ध शुद्ध 'जीव' पद का निषेध हुआ है।
जैसे- घनीभूत अन्धकार का प्रतिद्वन्द्वी प्रकाश, शीतलता का प्रतिद्वन्द्वी उष्णता है। इसी प्रकार जड़ पदार्थ का विरोधी भी कोई न कोई पदार्थ अवश्य होना चाहिए। जो जड़ का विरोधी रूप है वही चेतन अथवा आत्मा है।' व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद होने से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध
जीव (आत्मा) "अतति चतुर्विध गतिषु इति आत्मा" प्रस्तुत व्युत्पत्तियुक्त शुद्ध पद होने से सार्थक अर्थात् अर्थवाला हैं। जिस पद का कोई अर्थ नहीं निकलता वह शुद्ध पद नहीं है। जैसे-डित्थ, डवित्थ आदि। किन्तु जीव पद का अर्थ सर्वथा स्पष्ट है- शास्त्रों में जीव पद का अर्थ शरीरादि से भिन्न चैतन्य अथवा ज्ञान से युक्त जन्तु, प्राणी, भूत, सत्व, आत्मा, चेतन आदि है। इससे भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। आगमों में भी आत्मा के कई नाम मिलते है, जैसे -
___ 1. जीव, 2. प्राणी, 3. भूत, 4. सत्व, 5. विज्ञ, 6. चेता, 7. जेता, 8. रंगण, 9. हिण्डुक, 10. मानव, 11. कर्ता, 12. विकर्ता, 13. जन्तु, 14. यौनिक, 15. स्वयंभू, 16. देही, 17. ज्ञाता, 18. अन्तरात्मा। लोकव्यवहार द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
शरीर में जब तक जीव आत्मा हैं, तब तक उसे 'यह जीवित हैं' ऐसा माना जाता है। किन्तु शरीर से जीव का सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाने पर कहा जाता है 'जीव चला गया, यह मर गया' | इस प्रकार के लोक व्यवहार में उच्चार्यमान वाक्यों में 'जीव' पद के द्वारा शरीर से पृथक् आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है।'
| "संघातातित्तणत्तो, अस्थि य अत्थि घरस्सेव", वही, गाथा 1569 2 “अत्थि अजीवविवक्खो, पडिसेधातो घडोऽघड़स्सेव।
णत्थि घडोत्तिव, जीवत्थित्तपरो, णत्थिसद्दोयं”।। वही, गाथा 1573 "असतो णस्थिणिसेधो, संजोगतिपडिसेधतो सिद्ध। संजोगातिचउक्कंइपि, सिद्धमत्यंत्तरे णियत्तं ।। विशेषष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1574
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