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जब गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से पूछा कि अनुमान प्रमाण से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है, तब भगवान ने इस प्रकार समाधान दियाजिसका वर्णन विशेषावश्यक भाष्य के गणधरवाद में है ।
अनुमान प्रमाण द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि
अनुमान से आत्मा का अस्तित्व
अनुमान प्रमाण में यह नियम एकान्त रूप से नहीं है कि साध्य के साथ हेतु का सम्बन्ध है जो पूर्व में प्रत्यक्षतः देखा हो, तब तदनन्तर हेतु देखने पर साध्य की सिद्धि हो जाती है। जैसे किसी व्यक्ति ने भूत-प्रेत को हर्षित - रूदित, हस्त चरण की क्रिया करते हुए नहीं देखा तथापि उक्त लक्षणों को देखकर दूसरों के शरीर में भूत की विद्यमानता का अनुमान होता है, उसी प्रकार आत्मा के साथ किसी लिंग (हेतु या लक्षण) को पूर्व आत्मा के साथ किसी लिंग (हेतु या लक्षण ) को पूर्व न देखने पर भी आत्मा का अनुमान होता है ।'
शरीर का कर्ता होने से आत्मा सिद्ध है
जो शरीर दृष्टिगत है, वह घड़े आदि के समान सादि और नियत आकार वाला हैं। जैसे घड़े का कर्ता कुम्भकार है, वैसे ही देह का भी कोई न कोई कर्ता होना चाहिए । जिसका कोई कर्ता नहीं होता, उसका आदि तथा आकार नहीं होता। जैसे कि मेरू पर्वत का आकार नियत हैं किन्तु आदि नहीं है, क्योंकि वह नित्य हैं। पर शरीर सादि एवं निश्चित आकार से युक्त है एतदर्थ कोई इसका भी कर्ता है। आत्मा कर्मों के कारण शरीर काकर्ता है।
करणरूप इन्द्रियों का अधिष्ठाता : आत्मा
इन्द्रियां करण है, इसलिए उनका कोई न कोई अधिष्ठाता निश्चितरूपेण होना चाहिए। जैसे कि - कुम्भकार दण्ड-चक्र आदि कारणों का अधिष्ठाता होता हैं। जिसका कोई अधिष्ठाता नहीं है, वह करण स्वरूप नहीं है, जैसे आकाश । इसी प्रकार श्रोत्रादि
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“ जं चणलिंगेहिसमंमण्णसि, लिंगी जतो पुरा गहितो
संग ससेण व समंण, लिंगतो तोऽणुमेयो सो ।” विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1573
2 वही, गाया 1567 " देहसत्थि विधाता पतिणियत्ताकास्तो घड़स्सेव" ।
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