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________________ इसी प्रकार “मैं नहीं हूँ" ऐसा मानसिक निर्णय ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है। क्योंकि आत्मा नहीं है तो ऐसा विचार ही प्रादुर्भूत नहीं होता। अतः जो निषेध कर रहा है, वही आत्मा है।' संकलनात्मक ज्ञान करने वाली आत्मा है सर्व इन्द्रियां केवल अपने-अपने विषय का परिज्ञान करती है जैसे कर्ण केवल शब्द सुनते हैं, चक्षु केवल दृश्य पदार्थों को देखती है, घ्राण केवल सूंघ सकती हैं, जिव्हा केवल स्वाद का अनुभव कर सकती है और स्पर्शन् केवल शीत-उष्ण अष्टविध स्पर्शों का परिबोध कर सकती हैं, किन्तु ये सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का परिज्ञान आत्मा की उपयोग शक्ति से ही करती है, अन्यथा नहीं। किसी भी इन्द्रिय में स्वयं में ऐसी क्षमता नहीं है, कि वह एकाकी ही अन्य इन्द्रियों के विषयों का युगपद् रूप से अनुभव कर सके। अतःएव पूर्णतः प्रकट है कि ऐसी कोई शक्ति होनी चाहिए, जो एक साथ ही सुनना, देखना, सूंघना, चखना, स्पर्श करना आदि क्रियाएं कर सके, वह शक्ति आत्मा के अतिरिक्त और किसी में नहीं है। बृहदारण्यक उपनिषद् में उल्लेख है- “प्राण का ग्रहण करने वाला वही है, मन का विचार करने वाला वहीं है, ज्ञान को जानने वाला वहीं है। यही दृष्टा यही श्रोता है, यही मन्ता है, और यही विज्ञाता है। दूसरों के शरीर में आत्मा की सिद्धि ___अपने शरीर में जैसे विज्ञानमय आत्मा है, वैसे ही दूसरों के शरीर में भी विज्ञानमय आत्मा है, क्योंकि जैसे हमें इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति और अनिष्ट वस्तु विरत्ति होती हैं, वैसे ही दूसरों को भी इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से विरक्ति होती है। इसलिए हमारे शरीर के समान दूसरों के शरीर में भी आत्मा की सत्ता होनी चाहिए, यदि आत्मा नहीं है तब मसि-लेखन आदि अचेतन पदार्थों के समान उनकी भी क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं हो पायेगी। | "अत्थि अजीवविवक्खो, पडिसेधातोधडोऽधडस्सेव णत्थि धड़ोत्ति व जीवात्थित्तपरो, णार्थसदोऽयं।" विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1573 १ बृहदारण्यक उपनिषद- 3/4/1-2 ' एवं चिय परदेहेऽणुमाणत्तो, जीवमत्थित्ति। अणुवित्ति-णिवित्तीत्तो, णिवित्तीत्तो, विण्णाणमयं सरुवे व्व।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1564 84 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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