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जब गुण गुणी से अभिन्न हो तब गुणदर्शन से गुणी का भी साक्षात् दर्शन हो सकता है। जैसे वस्त्र और रंग दोनों अभिन्न है इसलिए रंग के ग्रहण से वस्त्र का भी ग्रहण हो जाता है, वैसे ही यदि स्मरणादि गुण आत्मा अभिन्न है तब स्मरणादि के प्रत्यक्ष से आत्मा का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। जब गुणों को गुणी से भिन्न मानते हैं तब घट जैसे पदार्थ का भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। क्योंकि इन्द्रियों द्वारा केवल रूप-रस आदि का ग्रहण होता है तब रूपादि को तो प्रत्यक्ष माना जायेगा, किन्तु रूपादि से भिन्न घट का तो प्रत्यक्षीकरण नहीं पायेगा । ऐसी स्थिति उसका अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा?
भिन्न नहीं है । '
अतएव यह तथ्य स्वीकार्य है कि गुणी गुण संशय का विषय होने से आत्मा की सत्ता सिद्ध
जिस विषय में संशय है वह वस्तु की विद्यमानता का सूचक है। जो वस्तु कहीं भी उपलब्ध नहीं हो, उसके विषय में कदापि किसी को संशय नहीं होता । जैसे- "यह ठूंठ है अथवा पुरुष ? इस प्रकार के संशय में दोनों ही वस्तुएं विद्यमान है यह आवश्यक नहीं कि संशयास्पद दोनों वस्तुएं, वहीं विद्यमान हो, अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध है। जैसे-गर्दभ के सिर पर श्रृंग न हो किन्तु गाय के सिर पर विद्यमान है। विश्व में श्रृंग का अभाव नहीं है। अतः संशय का विषय होने से आत्मा की सत्ता सिद्ध है । 2
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निषेध्य होने से जीव सिद्धि
"आत्मा नहीं है" इस कथन से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि आत्मा का पूर्णरूप से अभाव हो तब "आत्मा नहीं है" ऐसा प्रयोग सम्भव नहीं है। जैसे - विश्व में यदि कहीं भी कल्पवृक्ष की सत्ता नहीं है तो, यहां कल्पवृक्ष नहीं है" ऐसा वाक्य प्रयोग ही सम्भव नहीं हो पायेगा। इसी प्रकार जीव का अभाव है तब "जीव नहीं है" ऐसा प्रयोग कदापि नहीं होता। वर्तमान में वह पदार्थ समक्ष नहीं है पर अन्यत्र तो कहीं न कहीं है तभी हम यह स्पष्टतः कह सकते है कि 'कल्पवृक्ष नहीं है। इसी प्रकार आत्मा नहीं है" ऐसा कथन करने पर यदि आत्मा यहाँ नहीं है, अन्यत्र कहीं उसका अस्तित्व स्वीकार्य
होगा ।
। अण्णोणण्णो व गुणी होज्ज, गुणेहिं जति णाम सोणण्णो ।
णणु गुणमेतत्तग्गहणे, घेप्पति जीवो गुणी सक्खं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1559
2 अत्थिच्चियते जीवो, संसयत्तो, सोम्म! थाणु पुरिसो व्व ।
जं संसिद्धं गोतम ! तं तत्थण्णत्य यत्थि धुवं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1571
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