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आभार
श्रमण जीवन में ज्ञान का विशेष महत्त्व है। इस जीवन का लक्ष्य ही है श्रुतज्ञान की आराधना करते-करते परमज्ञान को प्राप्त करना । श्रुतज्ञान के आराधकों का जिनशासन में विशिष्ट स्थान है। उन आराधकों में डा. सागरमल जी जैन का नाम विद्वद्गणों में ज्योतिर्मय नक्षत्र की तरह है। वर्ष 2002 में प्राकृत साहित्य में एम. ए. करने के बाद ऐसे विषय पर शोधकार्य करने के भाव जागृत हुए, जिसका जैन सिद्धान्त के अध्ययन में विशेष महत्त्व हो ।
डा. साहब ने विशेषावश्यकभाष्य का नाम सुझाया जो जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ है । उसमें भी गणधरवाद व निहनववाद की दार्शनिक समस्याएँ, जिनको लेकर भारतीय दर्शनों में भी गम्भीर विवेचना हुई है। ऐसे विषय पर कार्य करना उपयुक्त समझकर डा. साहब के निर्देशन में ही शोधकार्य की प्रस्तावित रुपरेखा ( Synopsis) तैयार की। तत्पश्चात् शोध कार्य प्रारम्भ हुआ । स्वास्थ्य की प्रतिकूलता होते हुए भी डा. साहब ने अनुभवपूर्ण और विद्वत्तापूर्ण सुझावों को विशेष आत्मीयता के साथ दिये, जिससे मेरे शोध को नई दिशा मिली। सरल सहज स्वभाव तथा सादा जीवन उच्च विचार के धनी डा. साहब, जो सुदीर्घ अनुभवी विद्वान हैं, उनके निर्देशन में शोध कार्य करने का मुझे हर्ष और गर्व है।
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मूल प्रेरक के रूप में मेरी श्रद्धा के केन्द्र आराध्यदेव पूज्य आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्रमुनि मा., जो उच्चकोटि के साहित्यकार थे, साथ ही मेरे शिक्षा-दीक्षागुरु हैं, उन्होंने मुझे सदैव यही प्रेरणा दी कि जीवन में प्रमाद नहीं करना, सतत् ज्ञानार्जन करते रहना, ऐसे भगवन् की असीम कृपा रही, उन्हीं के शुभ- आशीर्वाद व स्नेहपूर्ण कृपा से यह शोधकार्य सम्पन्न हुआ है ।
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उपाध्याय श्री रमेशमुनि जी, आगम व जैनदर्शन के गम्भीर रहस्यों के ज्ञाता, उनकी पूर्ण कृपा रही, उनके आशीर्वाद व ज्ञानदृष्टि से मेरा कार्य सफल हुआ, उन्होंने मुझे शोध- सहयोगी सामग्री पर पूर्ण रुप से मार्गदर्शन किया।
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