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वज्जालग्ग
३-कव्ववज्जा (काव्यपद्धति) १९. चिन्तन-रूपी मन्दर (पर्वत) को मथानी से (मन्थान से) मथित, कवियों के विस्तृत और अगाध हृदय-सिन्धु में काव्य-रत्न उत्पन्न होते हैं ॥ १॥
२०. *जिस रचनावैशिष्ट्य के द्वारा पदों (शब्दों या छन्दों के चरणों) की उज्ज्वल (निर्दोष, श्रुति कटुत्वादि रहित) शोभा रहती है तथा जिसके भीतर (शृंगारादि) रस स्थित रहता है, उस काव्य की प्रशंसा से प्रत्येक हृदय वैसे ही विचलित हो उठता है; जैसे रत्नों द्वारा चरणों की शोभा को उज्ज्वल बनाने वाली, विपरीत-रति-संसक्त रमणी की क्वणित-रशना (करधनी की मधुर ध्वनि) सपत्नियों को संतप्त कर देती है ॥२॥
२१. प्राकृत-काव्य, विदग्ध-भणिति (द्वयर्थक व्यंग्योक्ति) तथा सुवासित शीतल जल से जो आनन्द उत्पन्न होता है, उससे हमें पूर्णतया तृप्ति नहीं होती है ॥३॥
२२. जैसे चोर सावधानी से पैर रखता है, (भयवश इधर-उधर) मार्ग देखता है, भित्ति-छिद्र (सेंध) पर चढ़ता है और किसी प्रकार कठिनाई से धन ले जाता है, वैसे ही कवि सावधानी से पद-रचना करता है, वैदर्भी आदि सुकुमार और कठोर मार्गों (शैलियों) का चिन्तन करता है, छेकानुप्रास की योजना करता है और अर्थ को लेकर कठिनाई से उसका निर्वाह करता है ॥४॥
२३. चोर अच्छे-बुरे शब्दों (या शकुन या अपशकुन को सूचना देने वाली आवाजों से) से डरता हुआ पद-पद पर कुछ सोचता हुआ, क्लेशपूर्वक अर्थ (धन) प्राप्त करता है और कवि शुद्ध एवं अशुद्ध शब्दों के प्रति सतर्क रहता हुआ, छन्द के प्रत्येक चरण पर कूछ चिन्तन करता हुआ काव्य को कठिनाई से प्राप्त करता है (काव्य की रचना करता है) ॥ ५ ॥
२४. उचित शब्दों से रचित, दोष-रहित, ललित, प्रसाद एवं माधुर्य-युक्त और छन्दों में रचित कविता तथा आज्ञानुवर्तिनी, निर्दोष, सुन्दर, स्वच्छ-हृदय, मधुर-स्वभाव एवं वशीभूत स्त्रो किसी प्रकार पुण्य से ही प्राप्त होती है ॥ ६ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य ।
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