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कृपण स्वामी कठोर श्रम का उचित मूल्य नहीं देता था । प्रायः उदार स्वामी बिना मांगे ही सेवकों का देय चुका देते हैं । यदि कभी किसी कारणवश विलम्ब हो जाता है और सेवक को माँगना पड़ता है तो वे उन्हें मुंह मांगा धन दे डाल हैं । जो इतने अधिक उदार नहीं होते वे बिना माँगे तो कुछ भी नहीं देते परन्तु मांगने पर सेवा का उचित मूल्य चुका देने में नहीं हिचकते । तृतीय कोटि उन कृपणों की है जो बिना मांगे टका भी नहीं देते और मांगने पर आँखें भी लाल कर लेते हैं । ऐसे स्वामियों के आश्रित सेवकों के मनोरथों का अन्त हो जाता है, क्योंकि प्राप्ति का तीसरा उपाय ही नहीं है । प्रस्तुत पद्य में 'कयंत' ( कृतान्त ) शब्द साभिप्राय है । वह केवल यम वाचक नहीं है, निम्नलिखित अर्थ का भी व्यंजक है :
वज्जालग्ग
कयंत ( कृतान्त ) कृतोऽन्तः ( मनोरथानां येन, कृतोऽन्तः पराकाष्ठा येन । अर्थात् जिसने ( मनोरथों का ) अन्त कर दिया है या जिसने पराकाष्ठा कर दो है ( कृपणता की ) ।
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'कयंत वसहिं गए संते' का एक अर्थ है -- यमराज के घर जाने पर । दूसरा अर्थ इस प्रकार है
जिसने मनोरथों का अन्त कर दिया है या जिसने कृपणता की पराकाष्ठा कर दी है, उसके घर जाने पर ।
सेवक ने क्रोधी राजा के समक्ष यह अप्रिय गाथा पढ़ी होगी - यह संभव नहीं है । उसने एकान्त में भावातिरेक की दशा में मनोगत स्वामी को सम्बोधित कर अपना आक्रोश प्रकट किया होगा । गाथा को किसी निर्भीक याचक की उक्ति भी मान सकते हैं ।
अर्थ - हे नरेन्द्र ! बिना माँगे मिलता नहीं और माँगने पर तुम क्रुद्ध हो जाते हो । हाय धिक्कार है, जब यमराज के घर जाओगे तब ( वहाँ की यातना ) कैसे सहोगे ।
अन्यार्थ - धिक्कार है, जिसने अन्त कर दिया उस (आश्रयदाता, या कृपण नरेश ) के घर जाने होने पर ) मैं ( यह अभावजनित क्लेश या अप्राप्ति रूप
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अर्थात् अति कर दी ) हैं
पर ( अर्थात् सेवाकार्यरत अपमान ) कैसे सहूँ |
यहाँ कृतान्त में अध्यवसान है । कभी भी दान न करने वाले मनुष्य को यमलोक में नाना यातनायें दी जाती हैं । अतः याचक की उक्ति सार्थक है । सेवक
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