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वज्जालग्ग
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जुड़ने पर तृतीया में 'तंबालाइ' हो जायगा। इसका अर्थ है--रक्तवर्ण वाली । पूर्वार्ध की छाया यों करनी होगी :--
दृष्ट्वा किंशुक शाखया ताम्रवत्या कस्माद् वञ्चितः । गाथार्थ--(तुम) पलाश-पुष्प (किंशुक) को देखकर रक्तवर्ण वाली शाखा (पुष्पों के कारण पलाश की शाखायें लाल हो जाती है) के द्वारा कैसे ठग लिये गये। अथवा तुम्हारा दोष नहीं है, पलाशों (राक्षसों और वृक्षों) ने किसे नहीं छला? ____इस अर्थ में कोष्ठकनिविष्ट सर्वनाम 'तुम' शुक का संकेत करता है । गाथा के 'किसुया' पद में मुद्रालंकार के द्वारा सूच्यर्थ सुया (शुक) की सूचना मिलती है । अथवा उक्त संस्कृत छाया को यह रूप दें--
दृष्ट्वा किंशुकाशा, हा त्वं बालया कस्माद् वञ्चितः । रक्सवर्ण किंशुक-मंडित पलाशद्रुम का अद्भुत सौन्दर्य देखकर कोई फलाशी शुक उसकी मनोहर शाखा पर जा बैठा । यह देख संवेदनशील कवि के कोमल कंठ से सहानुभूति का स्वर फूट पड़ा है। पूर्वार्ध का अन्वय वाक्य निम्नलिखित है
हे शुक कि दृष्ट्वा आशा ? ( अस्तीति शेषः ) त्वं बालया (स्त्रीत्वान्मायाविन्या तया आशारूपया) कस्माद् वञ्चितः ।
गाथार्थ हे शुक ! क्या देखकर आशा हो गई है ? ( अथवा देखकर क्यों आशा हो गई ) अरे ! तुम उस आशा-तरुणी के द्वारा क्यों ठग लिये गये ? अथवा तुम्हारा दोष नहीं है, पलाशों ने किसे नहीं छला है ?
पलाशवृक्ष के पुष्प अति लुभावने होते हैं परन्तु उसका फल निःसार एवं अखाद्य होता है।
गाथा क्रमांक ७६२ रयणायर त्ति नामं वहंत ता उवहि किं न सुसिओ सि ।
मज्झे न जाणवत्ती अत्थत्थी जं गया पारे ।। ७६२ ।। रत्नदेव ने इसकी निम्नलिखित संस्कृत छाया को है
रत्नाकर इति नाम बहंस्तद् उदधे कि न शुष्कोऽसि । मध्ये न यानतिनोऽर्थाथिनो यद् गताः पारे ।
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