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वज्जालग्ग
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भ्रमरों के प्रचुर कोलाहल से युक्त ( वासन्ती सुषमा का ) सहायक ( या सहचर ) आम्र, त्वरित-त्वरित क्या कर रहा है ( अर्थात् निन्दनीय कार्य करने जा रहा है )। ऐसा लगता है, मानों पथिकों (विरहियों ) के विनाश के लिये वासन्ती सुषमा संभावित है ( अर्थात् वसन्त के आने की संभावना है ) 'अलि उलघणवम्मल' पद में अतिशयोक्ति है ।
गाथा क्रमांक ६४० किंकरि करि म अजुत्तं जणेण जं बालओ त्ति भणिओ सि । धवलत्तं देंतो कंटयाण साहाण मलिणत्तं ।। ६४० ।।
किंकरि कुरु मायुक्तं जनेन यद्वालक इति भणितोऽसि
धवलत्वं ददानः कण्टकानां शाखानां मलिनत्वम् इसकी व्याख्या न तो रत्नदेवसूरि ने की है और न प्रो० पटवर्धन ने ही। अग्रेजी अनुवाद में इस गाथा का स्थान रिक्त छोड़कर पाद-टिप्पणी दी गई है कि भाव स्पष्ट नहीं है । अर्थ की जटिलता के कारणों का उल्लेख इस प्रकार है
क- स्त्रीलिंग सम्बोधन 'किंकरि' का किसी भी दशा में पुलिंग 'बालओ' 'भणिओं' और 'देंतों के साथ अन्वय नहीं हो सकता ।
__ ख-पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के मध्य कोई तार्किक सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है । किंकरि का अर्थ गृहसेविका लिखा गया है परन्तु उत्तरार्ध से सूचित होता है कि गाथा में किसी ऐसे वृक्ष को किंकरि शब्द से सम्बोधित किया गया है, जिसके कांटे श्वेत
और शाखायें श्याम होतो हैं। अतः उक्त अर्थ उपयुक्त नहीं है। वस्तुतः यहाँ किंकरि का अर्थ कीकर ( बबूल विशेष ) है। 'बालओ' का अर्थ बालक प्रकरणविरुद्ध प्रतीत होता है क्योंकि इस विशेषण का प्रयोग न तो गृहसेविका के लिये उपयुक्त है और न कीकर के लिए ही। प्राकृत में 'बा' का अर्थ दो ( द्वि ) होता है। बालय शब्द बा और आलय के योग से बना है। उसका संस्कृत रूपान्तर द्वयालय (द्वयोरालयो द्वयालयःप्राकृत बालओ) होगा। अर्थ है-दोनों का आलय अर्थात् आश्रय । यह गाथा किसी ऐसे आश्रयदाता के सन्दर्भ में कही गई है, जो अपने आश्रितों को समान दृष्टि से नहीं देखता था। ____ अर्थ-हे कीकर ! कण्टकों को धवलता और शाखाओं को श्यामता (मलिनता) प्रदान करते हुये अनुचित ( कार्य ) मत करो क्योंकि तुम दोनों ( कण्टकों और शाखाओं) के आश्रय ( आलय ) कहे गये हो ।
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