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वज्जालग्ग
श्री पटवर्धन ने पूर्वार्ध और उत्तराधं को स्वतन्त्र रखकर परिमल के लिये पुष्पों का आक्षेप किया है, जो ठीक नहीं है ।
गाथा क्रमांक ६३६ किं करइ तुरियतुरियं अलिउलघणवम्मलो य सहयारो । पहियाण विणासासंकिय व्व लच्छी वसंतस्स ॥ ६३६ ।। किं करोति त्वरितत्वरितमलिकुलघनशब्दश्च सहकारः पथिकानां विनाशाशङ्कितेव लक्ष्मीर्वसन्तस्य
-रत्नदेवकृत अव्याख्यात संस्कृत छाया प्रो० पटवर्धन ने इसका अनुवाद इस प्रकार किया है
"भ्रमरों के प्रचुर शब्द से युक्त आम्र जल्दी-जल्दी क्या कर रहा है ? ऐसा लगता है, वसन्त की देवी पथिकों के विनाश के प्रति सन्देहयुक्त है।"
टिप्पणी में लिखा गया है कि “गाथा के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में कोई तर्कपूर्ण सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है । क्रिया-विशेषण 'तुरिय-तुरियं' एवं प्रश्न 'कि करई' की भी सार्थकता समझ में नहीं आती है । 'किं करइ सहयारो' यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया है। उत्तरार्ध को किसी प्रकार भी उक्त प्रश्न का उत्तर नहीं कहा जा सकता। 'वम्मल' शब्द 'पाइयसहमहण्णव' में संकलित नहीं है। सम्भवतः वह मर्मर से निष्पन्न हुआ है।"
उपयुक्त उल्लेख अविचारित एवं निराधार है । 'किं करइ सहयारो' यह प्रश्नवाचक वाक्य ही नहीं है । यहाँ किम् शब्द निन्दार्थक है--
कि क्षेप-निन्दयोः प्रश्ने वितर्के....... । --अनेकार्थसंग्रह 'तुरिय-तुरियं' क्रियाविशेषण भी अपार्थक नहीं है । वह वसन्त श्री के आगमन से किचित् पूर्व ही मधुकर-मण्डली-मण्डित रसाल-कुञ्ज में द्रुत गति से विजभमाण उद्दीपन सामर्थ्य का अभिव्यञ्जक है। 'सहयार' ( सहकार ) में एक शब्दाध्यवसान-मूलक रूपक है--
सहयारो = सहकार आम्र एव सहकारः सहायः सहचरो वा अर्थात् आम्ररूपो सहायक । 'वसंतस्स लच्छी' Godess of spring ( वसन्त की देवी) के अर्थ में नहीं है। उसका अभिप्राय वासन्ती सुषमा से है। 'वम्मल' कोलाहल वाचक देशी शब्द वमाल का अपभ्रंश प्रभावित रूप है। 'आसंकिया' का अर्थ यहाँ सन्देही ( Apprehensive ) नहीं, संभावित है ( देखें-पाइयसहमहण्णव )। अब गाथा का अर्थ इस प्रकार करें
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